Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Bhaskarnandi, Jinmati Mata
Publisher: Panchulal Jain

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Page 11
________________ ( भट्टारक ) बद्धपर्यक होकर आयु के अन्त में संन्यास धारण कर सर्वसाधु ( नग्न दिगम्बर ) हो गए थे; वे पूज्य हैं।' इन्हीं शुभचन्द्र के जिनचन्द्र शिष्य थे। उन जिनचन्द्र के तत्त्वज्ञानी भास्करनन्दि नामके विद्वान् शिष्य हुए जिन्होंने यह सुखबोधिनी टीका बनाई। पद्मनन्दि के शिष्य ये वे शुभचन्द्र हैं जिन्होंने दिल्ली जयपुर की भट्टारकीय गद्दी चलाई। इनका समय वि. सं. १४५० से १५०७ तक माना है । फिर इनके पट्ट पर जिनचन्द्र बैठे थे। जिनचन्द्र का समय वि. सं. १५०७ से १५७१ तक माना जाता है। इन जिनचन्द्र ने प्राकृत में सिद्धांतसार ग्रंथ लिखा था जो माणिकचन्द्र ग्रंथमाला द्वारा सिद्धांतसारादि संग्रह में छपा है। वि. सं. १५४८ में सेठ जीवराजजी पापड़ीवाल ने शहर मुड़ासा में इन्हों जिनचन्द्र से हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई थी। श्रावकाचार के कर्ता पं० मेधावी इन्हीं जिनचन्द्र के शिष्य थे। उक्त भास्करनन्दि को भी संभवतः इन्हीं का शिष्य समझना चाहिए। इस हिसाब से इन पूज्य भास्करनन्दि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी माना जा सकता है।' पूज्य भास्करनन्दि की मात्र दो रचनाएँ उपलब्ध हैं। जिनमें से एक तो है प्रस्तुत ग्रंथ । दूसरी रचना है 'ध्यान स्तव' जिसमें १०० श्लोकों द्वारा ध्यान का वर्णन है। इसका आधार रामसेन का तत्त्वानुशासन तथा तत्त्वार्थसूत्र की टीकायें रही हैं। प्रस्तुत सुखबोधा के हिन्दी अनुवाद का हेतु : यह टीका मात्र मूल (संस्कृत भाषा) में ही सन् १९४४ में ओरियेन्टल लाइब्रेरी मैसूर से प्रकाशित हुई थी। जो कालान्तर में अनुपलब्ध भी हो गई । इस कारण मैंने पूज्य माताजी से प्रार्थना की कि इस ग्रंथ का पुनः प्रकाशन होना चाहिए जिससे यह हमें पुनः पढ़ने को मिल सके। साथ ही इसका अनुवाद भी हो जाना चाहिए ताकि सभी लाभ ले सकें। हमारी प्रार्थना माताजी ने स्वीकार की। तदनुसार मैंने सहारनपुर से स्व. रतनचन्द नेमिचन्द मुख्तार के शास्त्र भण्डार से प्रति मंगवाली। ग्रन्थ प्राप्त होने पर माताजी को भेजा। दैवयोग से माताजी काफी अस्वस्थ हो गए, अतः टीका का विचार बदलकर माताजी ने ग्रंथ मुझे वापस भेज दिया। मैंने इसे सहारनपुर लौटा दिया। यह बात साधिक दो वर्ष पूर्व की है। १. तीर्थंकर० ३।३०९, महावीर स्मारिका १९७२, २०२१-२२, ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव प्रस्ता० पृ० ७५ नोट-महावीर स्मारिका मुझे मादरणीय पण्डित रतनलालजी कटारिया ( सम्पादक जन सदेश ) के सौजन्य से प्राप्त हुई, प्रत। मैं उनका कृतज्ञ हूं। -प्रस्तावना लेखक

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