Book Title: Tattvartha Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 11
________________ तत्वार्थसूत्रे शब्दानेव संगृहीतवान् कचिच्च-आगमार्थान् संगृह्य तेषां संक्षेपेण वर्णनं कृतवानस्मि तथाच अर्हदागम. समन्वयात्मकं तत्त्वार्थसूत्रं समगृहणाम् , तस्य संक्षेपेण संगृहीतस्य तत्त्वार्थसूत्रस्याऽऽशयं विशदयितुं शास्त्रानुसारं यथामति मया नियुक्तिः क्रियते 'जीवाजीव' इत्यादि । जीवाः १ अजीवाः २ वन्धः ३ पुण्यं ४ पापम् ५ आस्रवः ६ संवरः ७ निर्जरा ८ मोक्षश्च ९ इत्येतानि नव तत्त्वानि सन्ति । उक्तञ्चोत्तराध्ययनस्य २८ अष्टाविंशतितमेऽध्ययने.... जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा । संवरो निज्जरामोक्खो संतेए तहिया नव ॥१॥ इति--तत्र चैतन्यलक्षणो जीवो बोधस्वरूपः प्रदीपप्रकाशादिवत्" हस्ति-कुन्थु प्रभृति शरीरानुसारेण संकोचविकाशशाली-एकेन्द्रियादिय॑पदिश्यते । अथवा-औपशमिकक्षायोपशमिकादिभावान्वितसाकाराऽनाकारोपयोग व्यपदेश्यः । शब्द रूपादिविषयपरिच्छेदी भूतभविष्यद् वर्तमानेषु समानकर्तृकक्रियः पुण्यपापकर्ता तत्फलभोक्ता अमूर्त स्वभावश्च बोध्यः। अर्थ, यथाशक्ति और यथामति आगमों का सार--संग्रह करके नौ अध्यायों में तत्त्वार्थ सूत्र का निर्माण किया है। प्रस्तुत तत्त्वार्थ सूत्र में कहीं-कहीं आगमों के शब्दों को ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया है,और कहीं-कहीं आगम के अर्थ का संक्षेप में वर्णन किया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ आहेतआगम का एक समन्वयात्मक ग्रंथ. है । संक्षेप में रचित तत्त्वार्थसूत्र के तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिए अपनी मति के अनुसार नियुक्ति की रचना की जाती है। (१) जीव (२) अजीव (३) बन्ध (४) पुण्य (५) पाप (६) आस्रव (७) संवर (८) निर्जरा और (९) मोक्ष, ये नौ तत्त्व हैं । स्थानांग सूत्र में, ६६५ वें सूत्र में, नवम स्थान में कहा है-'नौ सद्भाव रूप पदार्थ शब्द से तीर्थंकरों ने और अर्थ से गणधरों ने कहे हैं। वे इस प्रकार हैं -जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर निर्जरा, बन्ध, और मोक्ष । उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठाईसवें अध्ययन में भी इन्हीं नौ तत्वों का निर्देश किया गया है, इनमें पहला तत्त्व जीव है जो चैतन्य स्वरूप अर्थात् ज्ञानमय है । जैसे दीपक के प्रकाश में संकोच-विस्तार का गुण है, उसी प्रकार जीव में भी है । इस गुण के कारण जीव हस्ती और कुन्थु आदि के बड़े-छोटे शरीर के अनुसार संकुचित और विस्तृत हो जाता है। सांसारिक अवस्था में अपने द्वारा उपार्जित नामकर्म के अनुसार वह त्रस--स्थावर, देवनारक, एकेन्द्रियद्वीन्द्रिय आदि कहलाता है । अथवा जीव औपशमिक, क्षायोपशमिक आदि भावों से युक्त होता है, साकार--उपयोग (ज्ञान) तथा अनाकार-उपयोग (दर्शन) रूप है, शब्द रूप आदि विषयों

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