Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 18
________________ आपने अपने जीवन में छोटी-बड़ी बारह रचनाएँ रची हैं; जो लगभग एक लाख श्लोक प्रमाण तथा पाँच हजार पृष्ठों के आसपास हैं। उनमें से कुछ मौलिक और कुछ भाषा टीकाएँ हैं। मौलिक रचनाओं में मोक्षमार्गप्रकाशक, रहस्यपूर्ण चिट्ठी, गोम्मटसार पूजन और समवसरण रचनावर्णन – ये चार सर्वमान्य कृति हैं। टीका-रचनाओं में पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका, आत्मानुशासन भाषाटीका, त्रिलोकसार भाषाटीका तथा सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका है। सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका में गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका, गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका, अर्थसंदृष्टि अधिकार, लब्धिसार भाषाटीका और क्षपणासार भाषाटीका का संग्रह है। आपके द्वारा रचित मोक्षमार्ग-प्रकाशक ग्रन्थ अध्यात्मगर्भित आगमशैली की अनुपम रचना है। यह अनादिकालीन प्रचलित मिथ्या मान्यताओं को जड़मूल से नष्ट कर सम्यक् मोक्षमार्ग का दिशा-निर्देश करने में पूर्ण सक्षम है । यद्यपि यह रचना अपूर्ण है; तथापि आत्महित की दृष्टि से अपूर्व है । शायद इस कृति के कारण ही आपको आचार्यकल्प की उपाधि से विभूषित किया गया है। आपका सम्पूर्ण जीवन प्राणीमात्र को धर्मानुरागमय अन्तस्प्रेरणा का प्रतीक है। आपकी अल्पकालिक जीवन में की गई गंभीरतम साहित्यिक कृतिओं से प्राणीमात्र सदैव उपकृत रहेगा। "" प्रश्न २ : "इस भवतरु का मूल इक, जानहु मिथ्याभाव । ताकौं करि निर्मूल अब, करिए मोक्ष उपाव ॥' - इस पद्य का भाव स्पष्ट कीजिए । उत्तर : इस संसाररूपी वृक्ष की जड़ एकमात्र मिथ्याभाव है; इसलिए उसे जड़मूल से नष्ट कर अब मोक्ष का उपाय करना चाहिए। घर-कुटुम्ब आदि - ये कोई / कुछ भी अपना संसार नहीं हैं। ये तो संयोग हैं। इनके प्रति जो अपना आकर्षण है, प्रीति का भाव है, वह संसार है अथवा चारगति, चौरासी लाख योनिओं में संसरण संसार है। इस संसार रूपी वृक्ष का मूल मिथ्याभाव है अर्थात् अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञानचारित्र और गृहीत मिथ्यादर्शन - ज्ञान चारित्ररूप मिथ्याभाव ही इसकी जड़ है। इस जड़ की विद्यमानता से ही यह संसार - वृक्ष पुष्ट होता हुआ -शास्त्रों का अर्थ समझने की पद्धति / १३. ←

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