Book Title: Swanubhava
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Babulal Jain

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Page 8
________________ प्रकट हो रही है। सर्वप्रथम उस अजानता के विविध आयामों का ही विचार करते हैं : (1) सबसे पहली और मौलिक भूल यही है कि यद्यपि यह जीव अनन्त गुण वाला चैतन्य तत्व, ज्ञान शरीरी है तथापि इस मूर्तिक जड़ शरीर को, पुद्गल को इसने अपना होना - अपना अस्तित्व - मान रखा है। वह चैतन्य तत्व अमूर्तिक है, अत: इन चर्म - चक्षुओं से नहीं दीख सकता, वह मात्र स्वसंवेदनगम्य है, अपने अनुभव से ही जाना जा सकता है। उसे तो इस अज्ञानी ने पहचाना नहीं और आँख के माध्यम से जब बाहर झाँका तो इसे यह स्थूल शरीर दिखाई दिया। अपने आपको न पहचानने की भूल के कारण इसने इस शरीर को ही अपने - रूप मान लिया और इस मान्यता के कारण संसार की बेल बढ़ती ही चली गई। आत्मा व शरीर में भेद तो स्वयं सिद्ध है वह (भेद) कुछ इसे पैदा तो करना नहीं है। मात्र उसका ज्ञान करना है और वह भेद-ज्ञान करके उस एक अकेले चैतन्य में सर्वस्व स्थापित करना है। जिस रूप यह नहीं है, जब उस रूप स्वयं की अनुभूति कर सकता है, तो उस रूप क्यों नहीं अनुभूति कर सकता जिस रूप यह वास्तव में है। अनुभूति करने वाला तो यह स्वयं ही है। जैसी अहंबुद्धि इसकी शरीर में है वैसी ही चेतना में होनी चाहिए। और जैसी परबुद्धि पहने हुए वस्त्र आदि में हैं वैसी इस शरीर में होनी चाहिए। शरीर के स्तर पर तो इसे अनुभूति है - शरीर में अपनी सत्ता की अनुभूति होती है कि 'यही मैं हूं।' शरीर के बजाय यह मैंपना चेतना में से उठना चाहिये क्योंकि यह वास्तव में चैतन्य ही तो है, शरीर तो जड़ है। शरीर के स्तर पर इसे भेदविज्ञान भी है, अपने शरीर, घर, धन, वैभव, स्त्री, पुत्र आदि को ((6))

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