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चौदह गुणस्थान :- जब यह जीव-स्व- पर का भेद विज्ञान करता है, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से भिन्न अपने आपको ज्ञाता- द्रष्टा चैतन्यरूप अनुभव करता है, तब पहले गुणस्थान से इसके चौथा गुणस्थान होता है। वहां अन्तरंग में अनन्तानुबंधी कषाय और मिथ्यात्व का अभाव होता हैं, तथा वहिरंग में अन्याय-अभक्ष्य-अनाचार रूप प्रवृति का अभाव होता है। सच्चे, वीतरागी, देव-शास्त्र-गुरू ही पूजनीय हैं, अन्य नहीं, ऐसी श्रद्धा होती है।
इस भूमिका में आत्मानुभव कम-से-कम छह महीने में एक बार अवश्य होता है, अन्यथा चौथा गुणस्थान नहीं रहता। यहां साधक जब आत्मानुभव को जल्दी प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है अप्रत्याख्यानावरण कषाय इसके मन्द होने लगती है। जब यह कम-से-कम पन्द्रह दिन में एक बार आत्मानुभव होने की योग्यता बना लेता है, तब अन्तरंग में तो अप्रत्याख्यानावरण का अभाव होता है, और बहिरंग में अणुव्रतादिक बारह व्रतों का धारण तथा ग्यारह प्रतिमाओं के अनुरूप आचरण क्रम से शुरू होता है। यहां तक गृहस्थ अवस्था है- पांचवा गुणस्थान है।
यहां पर साधक अभ्यास के द्वारा आत्मानुभव का समय बढाता है और अन्तराल कम करता जाता है। फलस्वरूप, प्रत्याख्यानवरण कषाय मंद पड़ने लगती है।
और अभ्यास करते-करते जब इसके अन्तर्मुहूर्त में एक बार आत्मानुभव होने की योग्यता बनती है, तब अन्तरंग में तो प्रत्याख्यानवरण का अभाव होता है, और बहिरंग मे अट्ठाईस मूलगुणों का पालन तथा नग्न-दिगम्बर मुनि अवस्था के अनुरूप आचरण होने लगता है। यहां साधक जब आत्मानुभव से हटता है तो भूलगुणो के पालनरूप प्रवृति में अथवा स्वाध्याय, चिन्तवन आदि मे लगता है। यहां यह समझना जरूरी है कि यदि इस साधक को अन्तर्मुहूर्त के भीतर आत्मानुभव
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