Book Title: Swanubhava
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Babulal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ जैसा कि कोई स्त्री बहुत ज्यादा श्रृंगार करके जा रही है। वह चूंकि उसकी स्वाभाविक सुन्दरता नही, अतः उसे बार बार दर्पण मे अपना मुंह निहारना पडता है कि कुछ बिगड तो नही गया, निरन्तर उसे उसकी ही चिन्ता बनी रहती है । परन्तु ज्ञानी का आचरण ऊपर से ओढा हुआ नही होता, उसे बार बार यह देखना नही पड़ता कि कहीं कोई गलती तो नही हो रही है। सम्यग्दर्शन के आठ अंग उसे पालने पडते हों, ऐसा नहीं वे स्वतः ही पलते है। वह बाहरी पर पदार्थो में सुख-दुख नही मानता, ऐसा नही वरन् उसके पर पदार्थों में सुख-दुख का भाव पैदा ही नही होता। बाहरी कृत्यों से ज्ञानी - अज्ञानीपने का माप नही :- जीव की बाहरी दशा व कृत्यों से उसके ज्ञानी- अज्ञानीपने का माप नही किया जा सकता। हो सकता है कि अज्ञानी के कृत्य ज्यादा शुभ दिखाई दे, और ज्ञानी के अशुभ । ज्ञानी- अज्ञानीपने का सम्बन्ध तो भीतर की जागृति अथवा मूर्च्छा से है। यदि बाहर मे ज्ञानी - अज्ञानी दोनो के कृत्य एक जैसे भी दिखाई दे रहे है तो भी भीतर मे उन दोनो के अभिप्राय में महान अन्तर है। ज्ञानी उन कृत्यों को करना नही चाहता, उसकी रूचि नही है उनमें, रूचि तो उसकी मात्र ज्ञाता रूप रहने से ही है। कर्म के उदय की बरजोरी से काम करना और चाह करके करना दोनो मे महान अन्तर है। किसी ने पहले भांग पी ली और अब उसका नशा चढ़ा तो तो झूम रहा है । परन्तु अब वह यदि यह चाहे भी कि मुझे नशा न चढे, यह सम्भव नही। इस ज्ञानी ने भी पहले जो मोह की भांग पी थी उसका नशा इसे अभी तक चढ़ा हुआ है, अभी यह झूमता हुआ पाया जाता है । परन्तु भीतर मे उस नशे को यह हेय ही समझ रहा है और चाहता भी यही है कि कब यह नशा खत्म हो। एक समय ऐसा अवश्य आयेगा कि इसका नशा खत्म होगा और पुन: यह भांग नही पियेगा, तब (( 43 )) ..

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52