Book Title: Swanubhava
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Babulal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ हमेशा के लिये स्वस्थ हो जायेगा, 'स्व' मे स्थित हो जायेगा। परन्तु यह नशा तो जब खत्म होगा, तब होगा, अभी तो बाहर से देखने वाले को यह झूमता हुआ ही दिखाई दे रहा है। जो बहुत बड़ा परिवर्तन इसमे आया है, उसे तो स्वयं ही जानता है। वह उसके भीतर की वस्तु है, अभी वह बाहर दिखाई नही देगी। बाहर तो जब व्रती या मुनि अवस्था आयेगी तभी वह प्रगट होगी। वचन से भी ज्ञानी- अज्ञानीपने का माप नही- इसी प्रकार अज्ञानीपने का सम्बन्ध, व्यक्ति मुंह से क्या कर रहा है, इससे भी नही है। हो सकता है कि ज्ञानी मुंह से शरीर को अपना कहे, स्त्री- पुत्र आदि कहे, परन्तु ऐसा कहते हुए भी उसे वे 'पर' ही दिखाई दे रहे है और अज्ञानी मुंह से चाहे उन्हें 'पर' कहे, कि मेरे नही, परन्तु उसे वे अपने ही दिखाई देते है । लोक मे इसके उदाहरण भी पाये जाते है। हम दूसरे के बच्चे को लेकर जा रहे है, रास्ते मे किसी ने पूछा- किसका बच्चा है ? हमने कहा- ' 'अपना ही है। उस बच्चे को अपना कह रहे है परन्तु वह अपना मात्र कहने भर को ही है, दिखाई वह दूसरे का ही दे रहा है। ऐसे ही हमारा कोई अपना बच्चा है, उससे खूब लड़ाई-झगडा हो गया और हमने कहा कि आज से तेरा हमारा कोई संबंध नही और वह अलग भी रहने लगा। मुंह से कुछ ही कह दे परन्तु हृदय तो निरंतर यही रहता है कि कुछ ही कह ले, हे तो अपना ही । और कल को यदि किसी दुर्घटनावश वह बहुत घायल हो जाये तो खबर लेने पहुंच ही जायेगा उसके घर । या हो सकता है कि तीव्र कषायवश न भी जाये परन्तु निरन्तर वही ध्यान लगा रहेगा। जब लौकिक बातों में यह सम्भव है, तो परमार्थ मे क्यो नही? ज्ञानी वचन व काय से लौकिक व्यवहार चलाता हैं परन्तु मन उसका चेतना से ही जुडा रहता है। संसार नाटकवत् - क्योकि ज्ञानी का मन निरन्तर चेतना से ही (( 44 ))

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52