Book Title: Swanubhava
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Babulal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ मार्ग मिलता है। पुनः शुक्लध्यान का पाया बदलता है- तीसरे पाये से योग निरोध करते हुए चौदहवें गुणस्थान मे प्रवेश करते है, और फिर चौथे - शुक्लध्यान द्वारा शरीर से भी रहित होकर सच्चिदानन्द परमात्मा हो जाते है । • साथ गुणस्थानों की इस परम्परा में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि अध्यात्म, करणानुयोग और चरणानुयोग- इन तीनो का कार्य साथचलता है। चेतना मे लगना, कषाय का घटना, और आचरण का परिवर्तित होना - ये तीनो एक साथ होते है। ज्ञातापने की सहज क्रिया : ज्ञानी बार-बार अनुभूति करने का नही वरन् ज्ञाता - रूप रहने का ही पुरुषार्थ करता है उसे मैं ज्ञाता हूं, मैं ज्ञाता हूं ऐसा विकल्प नही करना पड़ता। दीपक जल रहा है, वह यह विकल्प नहीं करता कि मै प्रकाश कर रहा हूं, मैने इतने पदार्थो को प्रकाशित किया, अभी चक्रवर्ती निकला था, उसे भी मैने प्रकाशित किया था, इत्यादि । उसका तो अस्तित्व ही यह व्यक्त कर रहा है कि वह मात्र प्रकाश रूप है। इसी प्रकार ज्ञानी को भी ज्ञातापने की स्वाभाविक स्थिति बनती है, वह सबको जानता है । वह बार-बार ज्ञातापने से हटता है, मन से जुड़ जाता है, विचार चालू हो जाता है परन्तु फिर स्वयं को टोकता है, सावधान हो जाता है और श्वास के साक्षी रहने का, शरीर की सारी क्रियाओं का चलते-फिरते, उठते-बैठते साक्षी रहने का ही प्रयास करता है। साक्षीभूत रहते-रहते अनुभूति तो कभी स्वयं ही हो जाती है। अनुभूति व ज्ञातापने में अन्तर यही है कि अनुभूति मे तो मात्र एक अकेला चैतन्य ही रह जाता है, मन, श्वास, शारीरिक क्रिया आदि किसी पर भी दृष्टि नहीं रहती । परन्तु ज्ञातापने में भीतर (( 36 ))

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52