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ज्ञानी मात्र ज्ञान का कर्ता हुआ और उसी का भोक्ता कहलाया, कर्म व उसके फल का कर्ता व भोक्ता न रहा।
द्रव्यदृष्टि, पर्यायदृष्टि:- जब तक यह अज्ञानी था तब तक अपने आपको मात्र पर्याय-रूप ही देखता-जानता था, पर्याय दृष्टि का ही इसे एकान्त पक्ष था, द्रव्य स्वभाव का इसे ज्ञान ही न था जबकि आत्मा है द्रव्य पर्याय रूप! अत: वस्तु का सम्यक् परिज्ञान न होने के कारण यह मिथ्यादृष्टि कहलाता था। चेतन, द्रव्य-दृष्टि से त्रिकाल- शुद्ध और एक अकेला है परन्तु पर्यायदष्टि से देखे तो अशुद्ध हो रहा है, शरीर, कर्म आदि अनेक संयोगो को प्राप्त हो रहा है। अत: जीव को दोनो दृष्टियों का ज्ञान होना आवश्यक है। वस्तु का पर्याय-रूप अनुभव तो यह अनादिकाल से कर ही रहा है, वस्तु का द्रव्य-रूप अनुभव इसे होना चाहिए। अब आचार्यों के सम्यक उपदेश से जब द्रव्य-स्वभाव का ज्ञान करके इसने वस्तु का द्रव्य-रूप अनुभव किया तो इसका ज्ञान यथार्थ हुआ और यह ज्ञानी कहलाया। इसकी पर्याय मे एकत्व बुद्धि छूट गई।
द्रव्यदृष्टि के बल से भय, इच्छा व कषाय के प्रयोजन का अभाव: अज्ञान-दशा में वस्तु को मात्र पर्याय-रूप ही देखने से आकुलता के सिवाय और कुछ इसके हाथ न लगता था! सात भयों से भी यह निरन्तर घिरा रहता था-मरण का डर, पुण्य के उदय मे पाप का उदय आने का डर, सुख मे दुखी हो जाने का डर, सम्मानित है तो अपमान का डर, इत्यादि। इच्छा व कषाय करने का प्रयोजन भी इसके बना हुआ था, सारी स्थिति सब तरह से अनुकूल बनी रहे, इस बात की इच्छा रहती थी और इच्छा की पूर्ति न होने पर क्रोधादि कषाय-रूप परिणमित हो जाता था।
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