Book Title: Swanubhava
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Babulal Jain

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Page 30
________________ जरा जोर पड़ा कि श्वास से भी हटे और तब मात्र एक अकेला वह चैतय अनुभव में आता है। . पूजा व स्तुति - साक्षी - पूजा. करो औरा सुनने की चेष्टा करो, स्तुनि बोलते हुए सुनने की चेष्टा करो। सुनने की चेष्टा करने पर मन का व्यापार रूकेगा। जो शक्ति मन द्वारा फालतू की बात सोचने में जाती थी, वही अब सुनने में लग जाएगी। बाहर पूजा व स्तुति चल रही है और भीतर उसका जाननापना चल रहा है, चलता जा रहा है। इन दोनों क्रियाओं के बीच में मन के कोई विचार - विकल्प नहीं रहते, अत: शान्ति का अनुभव होता है। जानने वाले पर यदि जोर देते जाओगे तो पूजा व स्तुति का बोलना मन्द होते - होते एक समय बन्द हो जाएगा और तब मात्र एक अकेला चैतन्य तुम्हारे अनुभव में आयेगा। वहाँ शरीर नहीं, कर्म नहीं, कोई शब्द नहीं, कोई विकल्प नहीं, राग-द्वेषादि कुछ नहीं, कोई "मैं'' नहीं, मात्र एक अकेला 'वह' चैतन्य अपनी निराली महिमा को लिए विराज रहा है। इस प्रकार किसी भी धार्मिक क्रिया को माध्यम बनाकर उसका साक्षी - बनते - बनते जब जीव की अनुभूति जाग्रत होती हैं, तब इसे पता चलता है कि अरे। मैं तो यह जानने वाला था, आज तक मैं कैसा मतवाला, गहला हो रहा था कि मैंने सबको जाना, परन्तु जो जानने वाला है उसको ही नहीं जाना, स्वयं को ही नहीं जाना था। यह तो प्रत्यक्ष हे पर मेरे न देखने के कारण ही यह आवृत्त था। जैसे कोई स्वप्न से उठकर अपने दुःख को खो बैठता है वैसे ही जब यह जाग जाता है तो इसकी अनादिकालीन दरिद्रता समाप्त हो जाती है। साक्षी - भाव ही एक ऐसा उपाय है जिससे कषाय मिटती है,. इन्द्रियों की आधीनता समाप्त होती है, जो अपना है वह रह जाता है, और जो अपना नहीं है वह जाने लगता हैं उस अनुभव से जो आनंद ((281)

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