Book Title: Swanubhava
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Babulal Jain

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Page 17
________________ राग-द्वेष नहीं करा सकता। हरेक द्रव्य अपना-अपना परिणमन करता है। एक द्रव्य की पर्याय अन्य द्रव्य की पर्याय में निमित्त मात्र होती है परन्तु कर्ता नहीं हो सकती। अनन्तानुबंधी कषाय का सम्बन्ध तीव्र और मंद क्रोधादिक से नहीं है परन्तु कषाय करने का अभिप्राय होने से है। अन्यथा द्रव्यलिंगी शुक्ल लेश्या के धारी के तो अनन्तनुबंधी चालू है और नरक के नारकी सम्यग्दृष्टी के अनन्तनुबन्धी नहीं है यह सम्भव नहीं हो सकता। इस प्रकार इस जीव की अज्ञानता सब ओर फैली हुई है, और 'स्व' को न पहचान कर शरीर व परपदार्थो को ही यह अपने रूप देख-जान रहा है। पाँच - लब्धियाँ जैसा कि ऊपर विचार कर आये हैं, अज्ञानी जीव को न तो अपने स्वरूप की खबर है, न सच्चेदेव शास्त्र गुरू के स्वरूप की पहचान है, और न ही उनको पूजने के प्रयोजन का विचार है। सबसे पहले तो अपने प्रयोजन को ठीक करने पर दृष्टि होनी चाहिए कि मैं अपनी कषाय के कारण दुःखी हूं, वह कषायआत्मदर्शन से मिटेगी और वह आत्मदर्शन - सच्चे देव - शास्त्र-गुरू के माध्यम से मुझे करना है। यह सच्चे देव-गुरू-शास्त्र की खोज करके पता लगायेगा कि कहाँ से मुझे तत्व मिल सकता है। उनका निर्णय करके यह उन्हें भी आत्मा को जानने व पहचानने का ही माध्यम बनाएगा। सच्चे देव - गुरू - शास्त्र का निमित्त भी बड़े भाग्य से ही कदाचित किसी जीव को मिलता है। उसके मिलने के बाद आत्मदर्शन का पुरूषार्थ करके आत्म - अनुभव कर लेना बहुत बड़े साहस का काम है, तीव्र रूचि चाहिए उसके लिए। परन्तु प्रत्येक सैनी पंचेन्द्रिय जीव के पास ((15))

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