Book Title: Swanubhava
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Babulal Jain

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Page 18
________________ इनना 'क्षयोपशम' है जान शक्ति का इतना उघाड है कि वह स्वयं को देख-जान सके। शक्ति का उधाड़ तो उतना ही हैं, अब चाहे इसे भोगों में लगा दो चाहे स्वभाव में लगा दो चुनाव करने में यह स्वतन्त्र है। यदि इसने इस शक्ति का सदुपयोग न करके इसे भोगों में लगा दिया तो वह घटते - घटते अक्षर के अनंतवें भाग मात्र रह जायेगी और यह अपने चिर - परिचित स्थान निगोद में पहुँच जायेगा। इसके विपरीत, यदि इस शक्ति का सही उपयोग करे और स्वभाव में लगा देवें तो वही शक्ति बढ़ते - बढ़ते एक दिन केवलज्ञान तक पहुँच जायेगी। जैसे किसी के पास एक लाख रुपया है, अब वह उसे कहाँ लगाए, यह उसकी स्वतंत्रता है। यदि उसने सही चुनाव करके उसे ठीक व्यापार में लगाया तो वह एक लाख से बढ़ता हुआ करोड़ों तक पहुँच जाता है, अन्यथा एक लाख भी कम होते - होते नहीं के बराबर रह जाता है। जब जीव में शक्ति का उपयोग करने की सद्बुद्धि जागृत हो, कषायों की मंदता हो, परिणामों में 'विशुद्धि' आये, संसार में आकुलता भासित हो, तब स्व की खोज की जिज्ञासा इसमें पैदा होकि - "अनादिकाल से इस शरीर को अपनाकर मैं संसार में दुःखों ही दुःरवों का पात्र बनता रहा हूँ। जन्म के समय मैं इसे अपने साथ लाया नहीं था और मरण के समय भी यह यहीं पड़ा रह जायेगा। अत: ऐसा लगता है कि मैं इस रूप नहीं हूँ। यह जड़ मुझसे कोई जुदा ही पदार्थ है जबकि मैं चेतन जाति का हूँ। अहो ! मैंने बड़ी गलती की जो आज तक इसे अपना मानता रहा। इसको अपना कर मैंने क्या - क्या पाप नहीं किये, अभक्ष्य भक्षण किया, हिंसा - झूठ - चोरी - कुशील - अन्याय रूप आचरण किया। अब मैं कैसे स्व-तत्व को समझू "कहां जाऊँ' ? ... ऐसी पात्रता जब यह जीव पैदा करता है, ऐसी प्यास जब इसके उत्पन्न होती हैं तो बरसात को आना ही पड़ता है। कहते हैं कि जब राजस्थान में धरती ((16))

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