Book Title: Swanubhava Author(s): Babulal Jain Publisher: Babulal Jain View full book textPage 6
________________ क्योंकि वह जान क्षयोपशमरूप है इसलिये एक काल में एक ज्ञेयही को जानता है, वह ज्ञान स्वरूप जानने को प्रवर्तित हुआ तब अन्य का जानना सहज ही रह गया। वहाँ ऐसी दशा हुई कि बाह्य अनेक शब्दादिक विकार हों तो भी स्वरूप ध्यानी को कुछ खबर नहीं- इस प्रकार मतिज्ञान भी स्वरूप सन्मुख हुआ। तथा नयादिक के विचार मिटने पर श्रुतज्ञान भी स्वरूप सन्मुख हुआ। _ यहाँ प्रश्न : ऐसा अनुभव कौन से गणस्थान में होता है? उसका समाधान : चौथे से ही होता है, परन्त चौथे में तो बहत काल के अन्तराल से होता है और ऊपर के गुण- स्थानों में शीघ्र-शीघ्र होता है। इस बात की पुष्टि धवला पुस्तक 6 पेज 74 में की गई है - 1. दोनों ही ध्यानों में विषय की अपेक्षा कोई भेद नहीं है (धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान) 2. यह सत् सत्य है कि इन दोनों प्रकार के स्वरूपों की अपेक्षा दोनों ही ध्यान में कोई भेद नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि धर्म ध्यान एक वस्तु में स्तोक काल तक रहता है। 3. असयंत सम्यग्दृष्टि-सयमा सयम-प्रमत सयंत- - - - - - जीवों के धर्म - ध्यान की प्रवृति होती है। ऐसा जिन देव का उपदेश है। प्रवचन सार गाथा 184 अमृतचंद्रस्वामी जो एवं जाणिता भादि परं अप्पग्गं विसुद्धप्पा। सागाराणागारो खवेदि सो मोहदुग्गदि।। जो कोई श्रावक या मुनि परम आत्मा को विशुद्ध मन से ध्याता है वह मोह की गांठ को नाश करता है। . 114)Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52