Book Title: Swanubhava Author(s): Babulal Jain Publisher: Babulal Jain View full book textPage 9
________________ ही अपना मानता है, किसी दूसरे के शरीरादिक को नहीं। यही भेदविज्ञान इसे चेतना के स्तर पर होना चाहिए कि अनंतगुण वाला यह चेतन पदार्थ तो मैं हूं और यह शरीर एवं बाकी सारे पदार्थ 'पर' हैं अन्य हैं, दूसरे हैं। शरीर के स्तर पर जिस जिस पदार्थ का संयोग होता है उन सब में यह अपनापना मानता है। जो शरीर इसे मिला उसी रूप-: - स्त्री - पुरुष - नपुसंक रूप या मनुष्य देव - नारकी - पशु रूप अपने को मानता है अथवा, स्वयं को धनिक - निर्धन, रोगी- निरोगी, सुन्दर - कुरूप, दानी याचक, विद्वान मूर्ख, गृहस्थ - मुनि आदि मानता है। इसके विपरीत, यदि अपने स्वभाव को जानता है कि मैं तो चैतन्य हूँ और ये शरीरादिक अथवा धन, स्वास्थ्य, सौंदर्य आदि तो कर्म के उदय जनित संयोग हैं, तो फिर इसके इनमें अहम्पना नहीं होता, इनके होने या न होने से यह सुखी . दुःखी नहीं होता। परन्तु इसकी तो पर्याय में ही अहम् - बुद्धि हो रही है, अपने चैतन्य ज्ञान स्वभाव में अपनापना इसके नहीं आया। - - p - ( 2 ) जीव की दूसरी अज्ञानता इस मिथ्या मान्यता पर आधारित है कि सुख दुख 'पर' में से आता है और 'पर' ही मुझे कषाय कराता है। वास्तविक स्थिति यह है कि पर पदार्थ कभी भी सुख - दुःख का मूल कारण नहीं होता। जीव के सुख दुख का मूल कारण तो कषायों का, इच्छाओं विकल्पों का अभाव वा सद्भाव ही है। अधिक इच्छाओं वाला प्राणी दुःखी और कम इच्छाओं वाला अपेक्षाकृत सुखी देखा जाता है। - (( 7 )) सा होता है वह सुख वास्तव एक इच्छा की पूर्ति होने पर जो सुख का आभास में उस पर पदार्थ में से नहीं आता जो इच्छा की पूर्ति होने पर मिला है वरन् तत्सम्बन्धी इच्छा का उस समय जो अभाव हुआ है उस अभाव से वह सुख आया है । और उस समय भी एक इच्छा का ही तो आभाव हुआ है, अन्य अनन्तों इच्छायेंPage Navigation
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