Book Title: Sutrakritanga me Varnit Darshanik Vichar Author(s): Shreeprakash Pandey Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 4
________________ 114 जिनवाणी-- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क पंचमहाभूतवाद या भूतचैतन्यवाद गाथा संख्या सात व आठ में वर्णित इस मत का नामोल्लेख नहीं है। नियुक्तिकार इसे चार्वाक गत कहते हैं। अवधेय है कि ४ तत्त्व- १. पृथ्वी २. जल ३. तेज और ४. वायु को मानना प्राचीन लोकायतों का मत है, जबकि अर्वाचीन चार्वाक मतानुयायी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच तत्वों को मानते हैं। ये पाँच महाभूत सर्वलोकव्यापी एवं सर्वजन प्रत्यक्ष होने से महान हैं। इनका अस्तित्व व्यपदेश खण्डन से परे है। इस प्रकार सूत्रकृतांग में अपेक्षाकृत अर्वाचीन चार्वाकों का मतोल्लेख है । यद्यपि सांख्य व वैशेषिक दार्शनिक भी पंचमहाभूतों को मानते हैं, परन्तु ये चार्वाकों के समान इन पंचमहाभूतों को ही सब कुछ नहीं मानते । सांख्य-मत पुरुष, प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, पंचज्ञानेन्द्रिय पंचकर्मेन्द्रिय एवं पंचतन्मात्राओं की सना को स्वीकारता है। वैशेषिक दिशा, काल, आत्मा, मन आदि अन्य पदार्थों की भी सत्ता मानता है। चार्वाक दार्शनिक पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के शरीर-रूप में परिणत होने के कारण चैतन्य की उत्पत्ति भी इन्हीं पंचमहाभूतों से मानते हैं। उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार गुड़, महुआ आदि के संयोग से मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार इन भूतों के संयोग से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। चूंकि ये भौतिकवादी प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य कोई प्रमाण नहीं मानते, इसलिये दूसरे मतवादियों द्वारा मान्य इन पंचमहाभूतों से भिन्न परलोकगामी और सुख-दुःख के भोक्ता किसी आत्मा संज्ञक पदार्थ को नहीं मानते। इस अनात्मवाद से ही शरीरात्मवाद, इन्द्रियात्मवाद, मनसात्भवाद, प्राणात्मवाद एवं विषयचैतन्यवाद फलित हैं, जिसे कतिपय चार्वाक दार्शनिक मानते हैं । नियुक्तिकार ने इस वाद का खण्डन किया है। अपने मत के समर्थन में नियुक्तिकार का तर्क है कि पृथ्वी आदि पंचभूतों के संयोग से चैतन्यादि उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि शरीर के घटक रूप इन पंचमहाभूतों में से किसी में भी चैतन्य नहीं है। अन्य गुण वाले पदार्थों के संयोग से अन्य गुण वाले पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती। बालू में स्निग्धता न होने से उसमें से तेल नहीं निकल सकता। उसी प्रकार स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र रूप पाँच इन्द्रियों के जो उपादानकारण हैं, उनका गुण भी चैतन्य न होने से भूतसमुदाय का गुण चैतन्य नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त एक इन्द्रिय के द्वारा जानी हुई बात दूसरी इन्द्रिय नहीं जान पानी तो फिर मैंने सुना, देखा, चखा, सुंघा इस प्रकार का संकलन रूप ज्ञान किसको होगा ? परंतु यह संकलन ज्ञान अनुभव सिद्ध है। इससे प्रमाणित होता है कि भौतिक इन्द्रियों के अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञाता है जो पाँचों इन्द्रियों द्वारा जानता है और वही तत्त्व आत्मा है। यह आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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