Book Title: Sutrakritanga me Varnit Darshanik Vichar
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 5
________________ | सूत्रकृतांग में वर्णित दार्शनिक विचार हैं। २४ सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध के प्रथम "पुण्डरीक" नामक अध्ययन के दसवें सूत्र में भी शास्त्रकार ने द्वितीय पुरुष के रूप में पंचमहाभूतिकों की चर्चा की है एवं सांख्य दर्शन को भी परिगणित किया है। यद्यपि सांख्यवादी पूर्वोक्त पाँचमहाभूत तथा छटे आत्मा को भी मानता है तथापि वह पंचमहाभूतों से भिन्न नहीं है, क्योंकि सांख्य दर्शन आत्मा को निष्क्रिय मानकर पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाली प्रकृति को ही समस्त कार्यों का कर्ता मानता है। आत्मा को सांख्य अकर्ता मानता है। सांख्यदर्शन पुरुष या आत्मा को प्रकृति द्वारा किये हुए कर्मों का फल- भोक्ता और बुद्धि द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों को प्रकाशित करने वाला मानता है। इसलिए "से किणं किमाविमाणे, हणं मायमाणे.. . णत्थित्थ दोसो' अर्थात् सांख्य के आत्मा को भारी से भारी पाप करने पर भी उसका दोष नहीं लगता, क्योंकि वह निष्क्रिय है। शास्त्रकार कहता है कि यह मत निःसार एवं युक्तिरहित है, क्योंकि अचेतन प्रकृति विश्व को कैसे उत्पन्न कर सकती है। जो स्वयं ज्ञान रहित एवं जड़ है तथा सांख्य की दृष्टि में जो वस्तु है ही नहीं वह कभी नहीं होती और जो है उसका अभाव नहीं होता तो जिस समय प्रकृति और पुरुष दो ही थे उस समय यह सृष्टि तो थी ही नहीं फिर यह कैसे उत्पन्न हो गयी। इसका कोई उत्तर सांख्य के पास नहीं है। इस प्रकार लोकायतों का पंचमहाभूतवाद एवं सांख्यों का आशिक पंचमहाभूतवाद दोनों ही मिथ्या हैं। 115 २३ तज्जीवतच्छरीरवाद- तज्जीवतच्छरीरवाद चार्वाकों के अनात्मवाद का फलित रूप है। वे मानते हैं कि वही जीव है, वही शरीर है। पंचमहाभूतवादीमत में पंचमहाभूत ही शरीर के रूप में परिणत होकर दौड़ने, बोलने आदि सभी क्रियाएँ करते हैं जबकि तज्जीवतच्छरीरवादी पंचभूतों से परिणत शरीर से ही चैतन्यशक्ति की उत्पत्ति मानता है। शरीर से आत्मा को वह अभिन्न मानता है। इस मत में शरीर के रहने तक ही अस्तित्व है। शरीर के विनष्ट होते ही पंचमहाभूतों के बिखर जाने से आत्मा का भी नाश हो जाता है। शरीर के विनष्ट होने पर उससे बाहर निकलकर कहीं अन्यत्र जाता हुआ चैतन्य प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, इसलिए कहा गया है कि- पण ते संति' अर्थात् मरने के बाद आत्माएँ परलोक में नहीं जाती । नियुक्तिकार दोनों मतों का खण्डन करते हुए कहते हैं कि पंचमहाभूतों से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इनमें से किसी का भी गुण चैतन्य नहीं है। अन्य गुण वाले पदार्थों के संयोग से अन्य गुण वाले पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती। शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र एवं स्कार्णवर्जिन में किराति सवादि चैतन्य शरीर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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