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सूत्रकृतांग में वर्णित दार्शनिक विचार
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जगत्कर्तृत्ववाद - सूत्रकृतांग में जगत् की रचना के संदर्भ में अज्ञानवादियों
के प्रमुख सात मतों का निरूपण किया गया है*
१. किसी देव द्वारा कृत संरक्षित एवं बोया हुआ ।
२. ब्रह्मा द्वारा रचित, रक्षित या उत्पन्न ।
३. ईश्वर द्वारा रचित ।
४. यह लोक प्रकृति-कृत है।
५.
स्वयंभूकृत लोक ।
६. यमराज (मार-मृत्यु) रचित जगत् माया है, अतः अनित्य है । 19. लोक अण्डे से उत्पन्न है ।
शास्त्रकार की दृष्टि में ये समस्त जगत्कर्तृत्ववादी परामर्श से अनभिज्ञ, मृषावाटी एवं स्वयुक्तियों के आधार पर अविनाशी जगत् को विनाशी, एकान्त व अनित्य बताने वाले हैं। वास्तव में लोक या जगत का कभी नाश नहीं होता क्योंकि द्रव्य रूप से यह सदैव स्थिर रहता है। यह लोक अतीत में था, वर्तमान में है। वास्तव में लोक या जगत का कभी नाश नहीं होता, क्योंकि द्रव्य रूप से यह सदैव स्थिर रहता है। यह लोक अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। यह सर्वथा अयुक्तियुक्त मान्यता है कि किसी देव, ब्रह्मा, ईश्वर, प्रकृति, विष्णु या शिव ने सृष्टि की रचना की, क्योंकि यदि कृत होता तो सदैव नाशवान होता, परन्तु लोक एकान्नतः ऐसा नहीं है। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जिससे अपने-अपने मान्य आराध्य द्वारा लोक का कर्तृत्व सिद्ध किया जा सके। ईश्वर कर्तृत्ववादियों ने घटरूप कार्य के कर्ता कुम्हार की तरह ईश्वर को जगत् का कर्ता सिद्ध करने का प्रयास किया है, परन्तु लोक द्रव्यरूप से नित्य होने के कारण कार्य है ही नहीं । पर्याय रूप से अनित्य है, परन्तु कार्य का कर्ता के साथ कोई अविनाभाव नहीं है। जीव व अजीव अनादिकाल से स्वभाव में स्थित हैं । वे न कभी नष्ट होने हैं न ही विनाश को प्राप्त होते हैं- उनमें मात्र अवस्थाओं का परिवर्तन होना है। स्वकृत अशुभ अनुष्ठान या कर्म से दुःख एवं शुद्ध धर्मानुष्ठान से सुख की उत्पत्ति होती है। दूसरा कोई देव ब्रह्मा, विष्णु आदि किसी को सुख-दुःख से युक्त नहीं कर सकता।
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अवतारवाद' • नियतिवाद की भांति अवतारवाद मत भी आजीवकों का है। समवायांग वृत्ति और सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन में त्रैराशिकों को आजीवक या गोशालक मतानुसारी बताया गया है. ये आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानते हैं
१. रागद्वेष रहित कर्मबन्धन से युक्त पाप सहित अशुद्ध आत्मा की अवस्था । २. अशुद्ध अवस्था से मुक्ति हेतु शुद्ध आचरण द्वारा शुद्ध निष्पाप अवस्था प्राप्त करना तदनुसार मुक्ति में पहुंच जाना ।
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