Book Title: Sutrakritanga me Varnit Darshanik Vichar
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 14
________________ 124 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क ३. शुद्ध निष्पाप आत्मा क्रीड़ा, राग-द्वेष के कारण उसी प्रकार पुनः कर्म रज से लिप्त हो जाता है जैसे-मटमैले जल को फिटकरी आदि से स्वच्छ कर लिया जाता है, परन्तु आंधी तूफान से उड़ाई गयी रेत व मिट्टी के कारण वह पुन: मलिन हो जाता है।" इस तरह आत्मा मुक्ति प्राप्त कर भी क्रीड़ा और प्रदोष के कारण संसार में अवतरित होना है। वह अपने धर्मशायन की पुन: प्रतिष्ठा करने के लिए रजोगुण युक्त होकर अवतार लेता है। यही तथ्य गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हए कहा है-- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब में ही अपने रूप को रचता हूँ, साधु-पुरुषों की रक्षा तथा पापकर्म करने वालों का विनाश एवं धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये युग -युग में प्रकट हुआ करता हूँ। सूत्रकार अवतारवाद का खंडन करते हुए कहते हैं कि जो आत्मा एक बार कर्ममल से सर्वथा रहित हो चुका है, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं निष्पाप हो चुका है, वह पुनः अशुद्ध कर्मफल युक्त और पापयुक्त कैसे हो सकता है? जैसे बीज के जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न होना असम्भव है, वैसे ही कर्मबीज के जल जाने पर फिर जन्ममरण रूप अंकुर का फूटना असंभव है और फिर इस बात को तो गीता भी मानती है मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मनः संसिद्धि परमां गताः।। मामुपेत्य तु कौन्तेय! पुनर्जन्म न विद्यते।।" 'कीडापदोसेण' कहकर अवतारवादी जो अवतार का कारण बतलाते हैं उसकी संगति गीता से बैठती है, क्योंकि अवतरित होने वाला भगवान दुष्टों का नाश करता है तब अपने भक्त की रक्षा के लिए हर संभव प्रयत्न करता है और ऐसा करने में उनमें द्वेष एवं राग का होना स्वाभाविक है। स्व-स्व प्रवाद प्रशंसा एवं सिद्धि का दावा- सूत्रकार के अनुसार जगत्कर्तृत्ववादी आजीवक कार्य-कारणविहीन एवं युक्तिरांहेन अपने ही मतवाद की प्रशंसा करते हैं। वे सिद्धिवादी स्वकल्पित सिद्धि को ही केन्द्र मानकर उसी से इहलौकिक एवं पारलौकिक सिद्धि को सिद्ध करने के लिये युक्तियों की खींचतान करते हैं। परन्तु जो दार्शनिक मात्र ज्ञान या क्रिया से अष्ट भौतिक ऐश्वर्य, अन्य लौकिक एवं यौगिक उपलब्धियों से मुक्ति मानते हैं वे सच्चे अर्थ में संवृत्त नहीं हैं। वस्तुत: वे स्वयं को सिद्धि से भी उत्कृष्ट ज्ञानी, मुक्तिदाता व तपस्वी कहकर अनेक भोले लोगों को भ्रमित करते हैं। फलत: वे मतवादी इन तीन दुष्फलों को प्राप्त करते हैं- १. अनादि संसार में बार-बार परिभ्रमण २. दीर्घकाल पर्यन्त भवनपति देव (असुर) योनि में एवं ३. अल्प ऋद्धि , आयु तथा शक्ति से युक्त अधम किल्विषिक देव के रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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