Book Title: Sutrakritanga me Varnit Darshanik Vichar
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 17
________________ सूत्रकृतांग में वर्णित दार्शनिक विचार . . 127 कोई परिवर्तन नहीं मानते, आत्मा की बाल्यादि अवस्थाएँ नहीं होती, न ही सुख-दु:ख होते हैं इसलिए किसी जीव का वध करने से या पीड़ा देने से कोई हिंसा नहीं होती। शास्त्रकार उक्न मत को असंगत बताते हैं क्योंकि समस्त प्राणियों की विविध चेष्टाएँ नथा बाल्यादि अवस्थाएँ प्रत्यक्ष हैं, प्राणिमात्र मरणधर्मा है। एक शरीर नष्ट होने पर स्वकर्मानुसार मनुष्य तिर्यंच , नरकादि योनियों में परिंगित होता है एवं एक पर्याय से दूसरे पर्याय में बदलने पर जरा, मृत्यु. शारीरिक-मानसिक चिंता, संताप आदि नाना दुःख भोगता है जो प्राणियों को सर्वथा अप्रिय हैं। इसलिए रवाभाविक है कि जब कोई किसी प्राणी को सतायेगा, पीड़ा पहुँचायेगा, प्राणों से रहित कर देगा तो उसे दुःखानुभव अवश्य होगा। इसीलिए शास्त्रकार ने इन्हीं तीन स्थूल कारणों को प्रस्तुत कर किसी भी प्राणी की हिंसा न करने को कहा है। चारित्र शुद्धि के लिए उपदेश प्रथम अध्ययन के अंतिम तीन सूत्रों में कर्मबन्धनों को तोड़ने के लिये चारित्र-शुद्धि का उपदेश दिया गया है। वास्तव में ज्ञान, दर्शन, चारित्र अथवा त्रिरत्न समन्वित रूप में मोक्षमार्ग के अवरोधक कर्मबंधनों से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है। हिंसादि पाँच आनवों से अविरति, प्रमाद, कषाय और मन, वचन , काय रूपी योग का दुरुपयोग- ये चारित्र दोष के कारण है और कर्मबन्धन के भी कारण हैं ! चारित्रशुद्धि से आत्मशुद्धि होती है। उमास्वाति एवं उनके तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों ने १. गुप्ति २. समिति ३. धर्म ४. अनुप्रेक्षा ५. परीषहजय ६. चारित्र व ७. तप को संवर का कारण माना है। इसी प्रकार चारित्र शुद्धि के परिप्रेक्ष्य में दस विवेक सूत्रों का निर्देश किया है जो तीन गाथाओं में इस प्रकार अन्तर्निहित हैं१. साधक दस प्रकार की समाचारी में स्थित रहे। २.उसकी आहार आदि में गद्धता-आसक्ति न रहे। ३. अप्रमत्त होकर अपनी आत्मा का या रत्नत्रय का संरक्षण करे। ४. गमनागमन, आसन, शयन, खानपान में विवेक रखे। ५. पूर्वोक्त तीनों स्थानों, समितियों अथवा इनके मन, वचन, काय गुप्ति __ रूपी तीन स्थानों में मुनि सतत संयत रहे। ६ . क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों का परित्याग करे। ७. सदा पंचसमिति (ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेप समिति और उत्सर्ग समिति) से युक्त अश्वा सदा समभाव में प्रवृत्त होकर रहे। ८. प्राणातिपातादि-विरमण रूप पंचमहाव्रत रूप संवरों से युक्त रहे। २. भिक्षाशील साधु गार्हस्थ्य बंधनों से बंधे हुए गृहस्थों से आसक्तिपूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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