Book Title: Sutrakritanga me Varnit Darshanik Vichar
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 9
________________ 119 | सूत्रकृतांग में वर्णित दार्शनिक विचार ।। हैं और न ही कालान्तर रथायी बल्कि क्षणगात्र स्थायी हैं। ये सत हैं इसीलिए क्षणिक हैं। सत् का लक्षण अर्थक्रिया-कारित्व है एवं जो सत् है वह क्षणिक ही है। शणिकवाद का ट्रसग रूप इन चार धानुओं-पृथ्वी, जल, नेज और वायु को स्वीकार करता है। ये चागं जगत् का धाराण-पोषण करते हैं, इसलिये धातु कहलाते हैं। ये चारों फाकार होकर भूनसंज्ञक रूप स्कंध बन जाते हैं एवं शरीर रूप में जन्न परिणत हो जाते हैं तब इनको जीव संज्ञा होती है। जैसा कि वे कहते हैं.– 'यह शरीर नार धातुओं से बना है, इनसे भिन्न आत्मा नहीं हैं। यह भासंज्ञक रूपस्कंधमय होने के कारण पंचस्कन्धों की तरह क्षणिक है। यह चातुर्धातकवाद भी क्षणिकवाद का ही एक रूप है जो सतपिटक के मज्झिमनिकाय में वर्णित है। वृत्तिकार शीलांक के अनसार ये सभी बौद्ध मतवादी अफलवादी हैं। बौद्धों के क्षणिकवाद के अनुसार पदावं, आत्मा और सभी क्रियाएँ क्षणिक हैं। इसलिा किया करने के क्षण में ही कला आत्मा का समूल विनाश हो जाता है, अत: आत्मा का क्रियाफल के साथ कोई संबंध नहीं रहना। जब फल के समय तक आत्मा भी नहीं रहती और क्रिया भी उसी क्षण नष्ट हो गयी तो ऐहिक पारलौकिक क्रियाफल का भोक्ता कौन होगा? पंचस्कन्धों या पंचभूतों से भिन्न आत्मा न होने पर आत्मा रूप फलोपभोक्ता नहीं होगा। ऐसी स्थिति में गुख दुःखादि फलों का उपभोग कौन करेगा? साथ ही आत्मा के अभाव में बंध-मोक्ष, जन्म-मराण, लोक-परलोकगमन की व्यवस्था गड़बड़ हो जायेगी और शास्त्रविहित समस्त प्रवृत्तियाँ निरर्थक हो जायेंगी। शास्त्रकार जैनदर्शनसम्मत आत्मा की युक्ति-युक्तता के विषय में कहते हैं कि यह परिणामी नित्य, ज्ञान का आधार,दुसरे जीवों में आने-जाने वाला, पंचभूतों से कथंचिन् भिन्न तथा शरीर के साथ रहने से कथंचित् अभिन्न है। वह स्वकर्मबन्धों के कारण विभिन्न नरकादि गतियों में संक्रमण करता रहता है इसलिये अनित्य एवं सहेतुक भी है। आत्मा के निज स्वरूप का कथमपि नाश न होने कारण वह नित्य और अहेतुक भी है। ऐसा मानने में कर्ता को क्रिया का सुख व दुःखादिरूप फल भी प्राप्त होगा एवं बन्ध-मोक्षादि व्यवस्था की उपपत्ति भी हो जायेगी। सांख्यादिमतनिस्सारता एवं फलश्रुति - सांख्यादि दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित मुक्ति-उपाय की आलोचना करते हुये शास्त्रकार का मत है कि पंचभूतात्मवादी से लेकर चातुर्धातुकवादी पर्यन्त सभी दर्शन सबको सर्वदुःखों से मुक्ति का आश्वासन देते हैं। प्रश्न यह है कि क्या उनके दार्शनिक मन्तव्यों को स्वीकार कर लेना ही दुःखमुक्ति का यथार्थ मार्ग है? कदाचिट नहीं। बल्कि महावीर द्वारा प्ररूपित सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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