Book Title: Sutrakritanga me Varnit Darshanik Vichar
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 3
________________ सूत्रकृतांग में वर्णित दार्शनिक विचार . .. . 1131 क्रोधादि जिनसे ज्ञागावरणीय कर्म के योग्य पुद्गल परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं, भावबंध कहलाता है। आचार्य नेमिचन्द्र कर्मबंध के कारणभूत चेतन-परिणाम को भावबंध मानते हैं।" कर्मबंध के कारण- जैन दर्शन में बंध के कारणों की संख्या के विषय में मतैक्य नहीं है, एक ओर आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार" में वैदिक दर्शनों की तरह अज्ञान को हो बंध का प्रमुख कारण बतलाया है तो दूसरी ओर स्थानांग, समवायाग एवं तत्त्वार्थसूत्र में कर्मबन्ध के पाँच कारण माने गये हैं. जो अधिक प्रचलित हैं१. मिथ्यादर्शन २ . अविरति ३. प्रमाद ४. कषाय ५. योग। 1. मिथ्यादर्शन- जो वस्तु जैसी है, उसे उस रूप में न मानकर विपरीत रूप में मानना या ग्रहण करना मिध्यान्च है। दूसरे शब्दों में सम्यग्दर्शन का उल्टा मिथ्यादर्शन है। भगवतीआराधना एवं सर्वार्थसिद्धि में भी जीवादि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन बताया गया है। 2. अविरति-- घिरति का अभाव ही अविरति है। सर्वार्थसिद्धिकार ने विरति का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह ये पाँच त्याज्य , अत: हिंसा आदि पाँच पापों को नहीं छोड़ना या अहिंसादि पाँच व्रतों का पालन न करना अविरति है। सूत्रकृतांग की चौथी व पाँचवी गाथा में जीव को परिग्रह के दो रूप सचेतन एवं अचेतन से सचेत किया गया है। मनुष्य, पशु-पक्षी आदि प्राणियों में आसक्ति रखना सचेतन परिग्रह व सोना-चांदी, रूपया-पैसा में आसक्ति रखना अचेतन परिग्रह है। परिग्रह चूंकि कर्मबंध का मूल है, इसलिए वह दु:ख रूप है। 3. प्रमाद- प्रमाद का अर्थ है क्रोधादि कषायों के कारण अहिंसा आदि के आचरण में जीव की रुचि नहीं होना। वीरसेन ने क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषायों और हास्य आदि नौ उप कषायों के तीव्र उदय होने को प्रमाद कहा है। 4. कषाय- आत्मा के कलुष परिणाम जो कर्मों के बंधन के कारण होते हैं, कषाय कहलाते हैं। 5. योग- मन, वचन और काय से होने वाला आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन योग है। इन्हीं के कारण कर्मों का आत्मा के साथ संयोग होता है। बंध-उच्छेद- 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष:' अर्थात् जैन दर्शन मुक्ति हेतु ज्ञान एवं क्रिया दोनों को आवश्यक मानता है। कर्मबन्ध-उच्छेद हेतु दो विधियों का प्रतिपादन किया गया है-. २. नवीन कर्नबंध को रोकना संवर एवं २ आत्मा से पूर्वबद्ध कर्मों को, उनके विपाक के पूर्व ही तपादि द्वारा अलग करना सिर्जर है।" संवर व निर्जरा संकाईबंध का उन्लेट हो जाना ही मोक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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