Book Title: Sutrakritanga me Varnit Darshanik Vichar Author(s): Shreeprakash Pandey Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 2
________________ | 112 जिनवाणी-- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क प्रस्तुत निबंध में हम सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन के आरंभिक चार उद्देशकों में निहित दार्शनिक एवं आचारगत मान्यताओं और सिद्धान्तों का अनुशीलन करेंगे। वे इस प्रकार हैं- बंधन का स्वरूप, पंचमहाभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, क्षणिकवाद, सांख्यादिमत की निस्सारता, नियतिवाद, अज्ञानवाद. क्रियावाद. जगत्कर्तृत्ववाद. अवतारवाट. स्वस्वप्रवाद - प्रशंसा. मुनिधर्मोपदेश, लोकनाद, अहिंसा महाव्रत एवं चारित्र शुद्धि-उपाय । सूत्रकृतांग की आदि गाथा के चार पदों में ग्रन्थ के सम्पूर्ण तत्त्वचिंतन का सार समाविष्ट हैबंधणं परिजाणिया- बंधन को जानकर बुज्झेज्ज तिउटेज्जा- समझो और तोड़ो किमाह बंधणं वीरे- भगवान ने बंधन किसे बताया है? किं वा जाणं तिउट्टइ- और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है? वस्तुत: इन पदों में दर्शन और धर्म, विचार और आचार बीजरूप में सन्निहित हैं। शास्त्रकार ने आदिपद में बोध-प्राप्ति का, जिसका तात्पर्य आत्मबोध से है, उपदेश किया है। बोध-प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, यह तथ्य सूत्रकृतांग, आचारांग, उत्तराध्ययन' आदि आगमों में भी परिलक्षित होता है। बोध-प्राप्ति एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों को दुर्लभ है। आर्यक्षेत्र , उत्तमकुलोत्पन्न, परिपूर्ण-अंगोपांग एवं स्वस्थ सशक्त शरीर से युक्त दीर्घायुष्य को प्राप्त मनुष्य ही केवल बोधिप्राप्ति का अधिकारी है। आत्मबोध का अर्थ है- 'मैं कौन हूं? मनुष्य लोक में कैसे आया? आत्मा तत्त्वत: बंधन रहित होते हुए भी इस प्रकार के बंधन में क्यों पड़ी? बंधनों को कौन और कैसे तोड़ सकता है? बंधन का स्वरूप- संसारी आत्मा कर्मों से जकड़ी होने के कारण परतन्त्र है, इसी परतन्त्रता का नाम बंध है। उमास्वाति ने तत्वार्थसूत्र में 'कषाययुक्त जीव द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों का ग्रहण करना बंध है ऐसा कहा है। तत्त्वार्थवृत्तिकार अकलंकदेव के अनुसार आत्मप्रदेशों के साथ जो कर्म क्षीर नीरवत् एक होकर स्थित हो जाते हैं, रहते हैं या बंध जाते हैं, वे बंधन या बंध कहलाते हैं। अकलंक देव के अनुसार सामान्य की अपेक्षा से बंध के भेद नहीं किये जा सकते अर्थात् इस दृष्टि से बंध एक ही प्रकार का है। किन्तु विशेष की अपेक्षा से बंध दो प्रकार है- १. द्रव्यबंध और २. भावबंध।' द्रव्यबंध- ज्ञानावरणीयादि कर्म-पुद्गल प्रदेशों का जीव के साथ संयोग द्रव्यबंध है। भावबंध--- आत्मा के अशुद्ध चेतन परिणाम (भाव) मोह राग-द्वेष और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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