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दो शब्द इस समय जैन समाज में मुख्य चार फिरके हैं। दिगम्बर, श्वेताम्बर मूर्ति पूजक, स्थानकवासी और तेरहपंथी। दया और दान के विषय में प्रथम के तीन फिरके एक मत हैं। जैनों के उक्त तीन फिरके ही नहीं किन्तु इस समय विश्व में जितने भी मजहब हैं, वे सब इस विषय में एक हीमत हैं। चाहे हिन्दू धर्म हो, चाहे बौद्ध धर्म,चाहे ईसाई, पारसी और इस्लाम धर्म हो सब कोई दुःखियों के दुःख दर्द मिटाने के प्रयत्न को अच्छा समझते हैं। आपत्ति में पड़े हुए की सहायता करने और भूखे को भोजन देने में पाप नहीं मानते।
इस संसार में धर्म की रचना मुक्ति प्राप्त करने के उपरान्त इसलिए भी है कि जन साधारण एक दूसरे के प्रति अपना कर्तव्य समझे। जो बात हमें इष्ट है वही दूसरों को भी। यदि कोई हमारी सहायता या वक्त पर मदद करता है, तो वह कार्य हमें अच्छा लगता है। ऐसा ही बर्ताव हम दूसरों के लिए भी करें। यह मानवीय कर्तव्य है।
किन्तु प्रिय पाठको ! एक मज़हब ऐसा भी है, जो मरते प्राणी की रक्षा करने में और दीन, दुःखी, लूले, लंगड़ों की अन्न वस्त्रादि द्वारा सहायता करने में एकान्त पाप मानता है। मानता वह है जैन श्वेताम्बर तेरह पंथ। इसकी मान्यता है कि संसार में तेरापंथी साधु ही एक मात्र दान लेने के पात्र हैं। इनको देने में एकान्त धर्म और इनके अतिरिक्त किसी भी मनुष्य पशु-पक्षी आदि को कुछ भी खिलाने पिलाने या सहायता करने में एकान्त पाप है।
__जो कि जमाने के रुख को देखकर इन लोगों ने भाषा प्रयोग बदल दिया है। जब कोई पूछता है, तो सांसारिक-लौकिक धर्म या कर्तव्य बताते हैं। अव्रती असंयती का रक्षण पोषण करना ये लोग पाप मानते हैं। मरने से बचा हुआ व्यक्ति या हमारे दान से तृप्त व्यक्ति भविष्य में पाप कार्य ही करेगा यह हम कैसे निश्चय कर लें। सम्भव है वह जगत् कल्याण के लिए निकल पड़े। दीक्षा धारण कर ले। हमने शुद्ध मन से सहायता की उसका हमें शुभ फल ही प्राप्त होगा। बचा हुआ प्राणी आगे क्या करेगा, इसकी जिम्मेवारी हम पर नहीं आ सकती। हमारा कर्तव्य तो रक्षा-सहायता करते ही पूरा हो जाता है। इस विषय पर जैनाचार्य पूज्य श्री गणेशीलालजी म.सा. ने सुन्दर प्रकाश डाला है।
विनीत : पूर्णचन्द्रदक ალუდა დუდუ დუდიშურა, რადგან