Book Title: Suktavali yane Suktmuktavali
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 339
________________ नाषान्तर सहित. ३२३ रखे तमे लालचमां पमता. साधुए समजीने त्यांथी विहार को. ॥ यतः ॥ पुरनिछमणेयषो, महरामंगुतहेवसोनीहसो ॥ बोहे ईसुविहीयणं, दसूर बहुतहायएणं ॥१॥ वली कडं जेनीगाऽणघणघराउँ, नकधम्मोमए जिणका ॥ इहिरसमाय गुरु, अतणेननयसोहीअप्पा ॥ १ ॥ १५ ॥ ॥ अथ चतुर्थ एकत्व नावना विषे ॥ पुण्ये अकेलो जिव स्वर्ग जाए, पापे अकेलो जिव नर्क जाए॥ए जीव जा आव करे अकेलो, ए जाणिने ते ममता मदेलो ॥१६॥ नावार्थः- एक जीव पुन्याईनो धणी अहीं सुख जोगवीने देवतापणुं पामे, अने एहीज जीव अहीं पाप प्रकृतिने पण जोगवी मरीने माठी गति पामे; अर्थात् पुन्ये करी जीव एकलो वर्गे जाय डे अने पापे करी एकलो नर्के जाय . एज एटले ए जीव श्राप कर्मनी जे एकसो हावन प्रकृति के तेनो संचय करवे करीने सुख दुःखनो नोक्ता थाय बे. माटे हे नव्य जीवो! धर्म वस्तुनी अवहेलना न करशो,धर्मने श्रादरज्यो. जे ए धर्मश्री सकल कर्मनी उपाधी टालीने मुक्तिए जाय, ज्यां अनंत चतुष्टयी पामे. अनंत चतुष्टय ते शुं ? तो के-अनंतु ज्ञान, अनंतु दर्शन, अनंतु चारित्र अने अनंतु विरज, एवा सुखप्रत्ये पामशो. ए जीव एकलो जाय जे अने एकलो आवे एवं जाणीने एनो मोह मुकी द्यो. एटले उपर जणाव्या प्रमाणे धर्म श्रादरी मुक्ति महोलमां वीराजशो. ॥ १६ ॥ (उपजाति बंद) ए एकलो जीव कुटंब योगे, सुखी खी ते तस विप्रयोगे॥ स्त्री हाथ देखी वलयो अकेलो, नमी प्रबुछो तिणथी वहेलो ॥१७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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