Book Title: Suktavali yane Suktmuktavali
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 359
________________ भाषान्तर सहित. ३४३ नने सुख नाहि तेवु ॥संतोषवंत जनने सहु लोक सेवे, राजेंज रंक सरिखा करि तेहै जोवे ॥ ३१॥ नावार्थः- संतोष पामेला माणसने जेतुं सुख होय, तेवू सुख अव्यना लालची माणसने न होय; संतोषवंत माणसने सर्व लोकना बंद सेवे - माने, के जे म्होटा राजा श्रने रंकने सरखा जाणे ; अर्थात् संतोषवंत माणस महाराजा अने रांक ए बनेने सम दृष्टीए जुवे ने एटले सरखा गणे . जे आकरा अव्यना लालची प्राणी जे तेने मुखीया जाणवा. यतः॥ सुवन्नरूपसयपत्थया॥जवेसेहावोकेलाससमाअसंखया॥ नरस्सदुधस्सकिंचि ॥ श्छाहूयागाससमाअनंतया ॥ १ ॥ अर्थ- जो सोनाना अने रुपाना बधा पर्वत घरे आवे तो पण लोजीयानो लोन पूरो न थाय ॥ १ ॥ यतः ॥ तनकी तृश्ना सहेल हे, सवा सेर के सेर॥मनकी तृश्ना नहं मिटे, जो घर थाणे मेर ॥१॥ ते माटे संतोष ए सुखनुं भूल . ॥ श्लोक ॥ सर्पाःपिबंतिपवनंचर्बलास्ते ॥ सुकैत्वणैवनगजावलीनोनवंति ॥ कंदैफलैः मुनिवरागमयंत्यकालं ॥ संतोषएवपुरुषस्यपरंनिधानं ॥१॥३१॥ ॥अथ विवेक विषे ॥ उपजाति बंद ॥ जो जेद चित्ते सुविवेक नासे, तो मोह अंधार विकार नासे ॥ विवेक विज्ञानतणे प्रमाणे, जीवादि जे वस्तु खन्नाव जाणे ॥३२॥ जावार्थ:- जेना चितमां विवेक आवे तेनो मोहरूपी अंधकारनो विकार नाश पामे; विवेकाईए करी विज्ञान चतुराई सर्व प्रमाण थाय अने तेजीवादिक वस्तु स्वजावने पण जाणे ॥३॥ बीजी प्रतमा १ " संतोष तृप्त ” ने बदले " संतोषवंत" जे. अने ५ "तेह" ने बदले " जेह" . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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