Book Title: Sudansan Chariu
Author(s): Nayanandi Muni, Hiralal Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa

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Page 13
________________ ( १२ ) सोलंकीराय श्री सूर्यसेन विजयराज्ये तदाम्नाये खंडेलवालान्वये साहगोत्रे साह तेजा भार्या करमती द्वितीय भार्या लोचमदे । प्रथमभार्या करमइती तत्पुत्र साह दूलह । द्वितीय भार्या चमदे तत्पुत्र साह श्रीपाल । साह दूलह भार्या दूलहदे । तत्पुत्रौ द्वौ साह आखा, द्वितीय पुत्र साह हेम । आखा भार्या अहंकारदे द्वितीया कनौलादे । साह हेमभार्या हर्षम । साह श्रीपाल भार्या सरस्वती । तत्पुत्रौ साह होला, द्वितीयः साहाला । होला भार्या हुलसरी तत्पुत्र साह सुरतान | लाला भार्या ललितादे, साह रत्नसी भार्या रयणादे । एतेषां मध्ये साह रतनसी इदं सुस्तक सुदर्शन चरित्रं लिखापितं पल्लिविधानव्रतनिमित्तं । आ० श्री अभयचन्द्रदेवा तत्शिष्य मुनि मदुकीर्ति समर्पितं । पुत्र ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात् सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेषजादू भवेत् ॥ इस प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उक्त प्रति संवत् १५६७, माघ बदी द्वितीया बुधवार को लिखकर पूर्ण हुई थी तथा उसके लिखाने वाले साह रतनसी खंडेलवाल वंश के थे और वे तोडगढ़ में निवास करते थे जहां सोलंकी राजा सूर्यसेन का राज्य था । उन्होंने यह ग्रंथ पल्लिविधानव्रत के निमित्त से लिखाया था और उसे ० श्री अभय चंद्र के शिष्य मुनि पद्मकीर्तिको समर्पित किया था। प्रशस्ति में साह रतनसी के वंश का विस्तार से परिचय दिया गया है और मूलसंघ, बलात्कार गण, सरस्वतीगच्छ नंद्याम्नाय, कुंदकुदाचार्यान्वय भ० पद्मनंदी, शुभचंद्रदेव, जिनचंद्रदेव और प्रभाचंद्रदेव तथा उनके शिष्य मंडलाचार्य धर्मचंद्रदेव का उल्लेख है । भ० पद्मनंदी से प्रभाचंद्र तक के आचार्यों का उल्लेख बलात्कारगण की दिल्ली जयपुर शाखा की पट्टावलियों में पाया जाता है तथा शुभचंद्र से लेकर प्रभाचंद्र तक संवत् १४५० से १५८० तक के उल्लेख मिलते हैं । प्रति : यह प्रति भी अतिशयक्षेत्र महावीर जी के शास्त्रभंडार की है । पत्र संख्या १००, पंक्तियाँ प्रति पृष्ठ है | अक्षर प्रति पंक्ति लगभग ४१-४२ । पत्रों का आकार १०३' x ३१० " । हाशिया दाहिने बायें " तथा ऊपर नीचे ३" है । दोनों हाशियों पर कुछ टिप्पण भी लिखे हैं, जो बहुत अशुद्ध हैं । प्रति की अंतिम पुष्पिका निम्नप्रकार है : - इति सुदर्शनचरित्रं समाप्तं शुभमस्तु | सर्व ग्रंथाग्र २ लो सं० २७७७ अथवा संवत्सरे संवत् १५१७ वर्षे माघवदी पडिवा शनिवासरे । इस पुष्पिका में लिपिकार का कोई उल्लेख नहीं है । किन्तु इतना स्पष्ट है कि प्रति संवत् १५१७ माघ वदी १ शनिवार को लिखकर पूर्ण की गई थी । प्रति इस प्रति की पत्र संख्या १०६ है । पंक्तियाँ प्रति पृष्ठ ८,१० और अक्षर प्रति पंक्ति लगभग ३३, ३४ । आकार १०३ " x ३३" । हाशिया दाहिने बायें १" व ऊपर नीचे ?" । ग्रंथ के अन्त में लिपिकार की निम्नलिखित प्रशस्ति पायी जाती है : -: समाप्तमिदं अशुभकर्मक्षयकारकं सुदर्शन चरित्रं । संवत् १५९८ वर्षे चैत्र सुदी ५ शुक्रवारे श्री गोपाचलदुर्ग निकटस्थ नरेले नाम नगर शुभस्थाने श्री नेमिजिनचैत्या

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