Book Title: Sramana 2005 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी- जून २००५ व्यवस्था में कोई बाधा आती है तब उसे पूर्वस्थित में लाने की क्षमता भी निसर्ग में विद्यमान है क्योंकि वह भी इस नैसर्गिक नियम का एक अंग है। सभी प्राणि जातियों का अन्न प्रकृति नियम से सुनिश्चित है। कुछ प्राणी शाकाहारी हैं और अन्य कुछ मांसाहारी। गाय, भैंस, खरगोश आदि जीव घास या अन्य प्रकार के पौधे खाते हैं तब उनके मन में द्वेष की भावना नहीं होती। इसी प्रकार जब बाघ, हिरण को मारता है तब उसके मन में द्वेष की भावना नहीं होती । वह तो अपने उदरभरण के लिए अपना निसर्ग नियमित अन्न लेता है, जैसे गाय घास खाती है । निसर्ग के नियम से सुनिश्चित आहार आवश्यक मात्रा में लेना ही सही आचरण है। ६ : मानव जाति के विकास में दो प्रमुख बदलाव आये हैं। पहला बदलाव था चतुष्पाद अवस्था से द्विपाद अवस्था का उदय जिसमें वह कई प्रकार के औजार बना सका। गुहावास छोड़कर ग्रामवास और क्रमेण नगरवास अपनाया गया। दूसरे बदलाव के फलस्वरूप मस्तिष्क में विचार करने की क्षमता आ गयी । शिक्षा द्वारा ज्ञान निरन्तर बढ़ने लगा। मनुष्य युक्तियुक्त विचार कर सकता है । निसर्ग नियम समझते हुए उनका पालन करना ही मानव के लिए हितकारक है। इसी ज्ञान से अन्य जीवों पर दया की भावना उत्पन्न होती है। जब खेती करने की क्षमता विकसित हुई तब मानव मांसाहार से मुक्त होकर शाकाहारी बना। गोधन बढ़ाने से कई पोषक एवं उपयोगी पदार्थ मिलने लगे। पालतू जानवरों से लाभ पाने के लिए उनका पालन-पोषण सही ढंग से करना अनिवार्य था। इससे पशुओं के बारे में प्रेम एवं कृतज्ञता के भाव पैदा हुए। निसर्ग में सभी जीव-जातियों का अपना स्थान तथा औचित्य है। कोई जीव निसर्ग की व्यवस्था में अनावश्यक नहीं है। जीव - विकास में जब किसी पौधे या जानवर की सार्थकता समाप्त होती है अर्थात् निसर्ग की व्यवस्था में वह विसंगत होता है तब वह विलुप्त होता है। यह भी नैसर्गिक व्यवस्था है। डायनोसोर जैसे भीमकाय जानवर इसी प्रक्रिया में लुप्त हो गये। इस तरह निसर्ग में कोई 'अनावश्यक' या फालतू जीव नहीं है। जानवरों पर ईमानदार, मूर्ख, सुन्दर, बदसूरत, चतुर, राजतुल्य आदि गुणों का आरोप अवैज्ञानिक है। हमारी सीमित (कभी-कभी सदोष ) दृष्टि से ऐसे गुणों का आरोप होता है जब कि वस्तुनिष्ठ दृष्टि से यह गलत है। प्रकृति का एक अंग होने के नाते प्राकृतिक सम्पदा में मानव का भी एक न्यायोचित हिस्सा है। इससे अधिक लेना ही निसर्ग नियम का उल्लंघन है अर्थात् पाप है। वैज्ञानिक व्यवहारवाद में मानव में मानव की किसी अन्य जीवों से श्रेष्ठता नहीं मानी जाती। विज्ञान की दृष्टि से मानवश्रेष्ठतावाद तत्त्वतः असंगत है। विकसित तंत्रज्ञान के विवेकशून्य प्रयोग से मानव को ही हानि पहुंचती है। विज्ञान के नाम पर प्राणियों पर कैसी घोर हिंसा की जाती है उसका विवेचन नीचे दिया जाएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 280