________________
२१
२१. महावंस (१०.६५, ३३. ४३-७९) के अनुसार श्रीलंका में बौद्धधर्म पहुँचने के पूर्व जैनधर्म का अस्तित्त्व था । पाण्डुकाभय ने वहाँ जोनिव और गिरि नामक निग्रन्थ के लिए चैत्य बनवाये थे। बाद में मट्टगामिणी अभय ने निर्ग्रन्थों का विनाश कर दिया ।
22. T.V.G. Sastri, "An Earlist Jaina Site in the Krishna Valley", Arhat Vacana, Vol. I ( 3-4 ), June - Sept. 89, p. 23-54.
जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २८, मुम्बई १९२८ ई., लेखांक
२३. हीरालाल जैन, सम्पा०- जैनशिलालेखसंग्रह, भाग - १, माणिकचन्द्र दिगम्बर १७-१८. २४. महावीर सवितरि परिनिवृते भगवत्परमर्षि गौतम गणधर साक्षाच्छिष्य लोहार्य्य-जम्बुविष्णुदेवापराजित-गोवर्द्धन - भद्रबाहु - विशाख- प्रोष्ठिल कृत्तिकार्य्य- जयनाम सिद्धार्थ धृतिषेणबुद्धिलादि गुरुपरम्परीण वक्र (क्र) माभ्यागत महापुरुषसंकृत्तिकार्य्यसमवद्योतितान्वय भद्रबाहु स्वामिना उज्जयन्यामष्टांग महानिमित्त तत्त्वज्ञेन त्रैकाल्यदर्शिना निमित्तेन द्वादशसंवत्सर-काल- -वैषम्यमुपलभ्य कथिते सर्व्वस्सङ्घ उत्तरापथाद्दक्षिणापथं प्रस्थितः । पार्श्वनाथवसति शिलालेख, शकसंवत् ५२२, जैन शिलालेख संग्रह, भाग - १, लेखांक १.
-
२५. सप्ताश्विवेदसंख्यं, शककालमपास्य चैत्र शुक्लादौ ।
अर्धास्तमिते भानौ, यवनपुरे सौम्य दिवासाद्ये । ।
पंचसिद्धान्तिका अन्तिम प्रशस्ति, उद्धृत — जैनधर्म का मौलिक इतिहास,
भाग- २, पृ० ३७२.
२६. चंदगुत्ति राहु विक्खायहु विंदुसारणंदणु संजायहु ।
तहु पुत्तु विअसो हुउ पुण्णउ णउलु णामु सुअ तहु उप्पण्णउ । णामें चंदगुत्ति तहु णंदणु संजायउ सज्जणु आणंदणु ।
भद्रबाहु - चाणक्य- चन्द्रगुप्त कथानक, १०-११.
गाथा ७१४-७५२, पइण्णयसुत्ताई, सं.- मुनि पुण्यविजय जी, प्रकाशक, महावीर विद्यालय, बम्बई, सन् १९८४. २८. (अ) देखें— जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, डॉ. सागरमल जैन,
२७. तित्थोगालीपइन्नय
-
पृ. २२०-२२१.
(ब) पेच्छइ परिब्भमन्तो दाहिण देसे सियम्बर पणओ । पउमचरियं (विमलसूरि ) प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी, २२ / ७८.
जैन शिलालेखसंग्रह, भाग २,
२९. यापनि (नी) य निर्ग्रन्थकुचकानां
लेख क्रमांक ९९.
Jain Education International
......
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org