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जीवसमास
यह निर्देश नहीं है कि इन्हें मार्गणा कहा जाता है। इसी प्रकार गाथा आठ और नौ में चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश है, किन्तु वहाँ इन्हें गुणस्थान न कहकर जीवसमास कहा गया है। उसी काल के अन्य दो ग्रन्थ समवायांग और षट्खण्डागम भी गुणस्थानों के लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग न कर क्रमश: जीवस्थान और जीवसमास शब्द का प्रयोग करते है। आचार्य कुन्दकुन्द ही प्रथम व्यक्ति है जो इन तीनों अवधारणाओं को स्पष्टतया अलग-अलग करते है। इसी आधार पर प्रो० ढाकी आदि कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि कुन्दकुन्द का काल छठी शताब्दी के पश्चात् ही मानना होगा। जब ये तीनों अवधारणाएँ एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् स्थापित हो चुकी थीं और इनमें से प्रत्येक के एक-दूसरे से पारस्परिक सम्बन्ध को भी सुनिश्चित रूप से निर्धारित कर दिया
गया था।
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प्रस्तुत कृति में चौदह गुणस्थानों के नाम निर्देश के पश्चात् जीव के प्रकारों की चर्चा हुई है उसमें सर्वप्रथम यह बताया गया है कि आयोगी केवली दो प्रकार के होते हैं- सभव और अभव। अभव को ही सिद्ध कहा गया है। पुनः सांसारिक जीवों में उनके चार प्रकारों की चर्चा हुई है- (१) नारक, (२) तिर्यञ्च, (३) मनुष्य और (४) देवता ।
इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति में नारकों के सात भेदों और देवों के भवनवासी व्यन्तर, ज्योतिष और वैमानिक ये चार भेद किये गये है। इसके पश्चात् इनके उपभेदों की भी चर्चा हुई है । गुणस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में उपरोक्त चारों गतियों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि देव और नारक योनियों में प्रथम चार गुणस्थान पाये जाते हैं। तिर्यञ्चगति में प्रथम पाँच गुणस्थान पाये जाते हैं, जबकि मनुष्य गति में चौदह ही गुणस्थान पाये जाते हैं। ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत प्रसंग में इनके लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग न करते हुए जीवस्थान शब्द का ही प्रयोग किया गया है। इसके पश्चात् पर्याप्त और अपर्याप्त की चर्चा में यह बताया गया है कि अपर्याप्त में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। पर्याप्त में उनकी गति के अनुसार गुणस्थान पाये जाते हैं। इसके पश्चात् इन्द्रियों की दृष्टि से चर्चा की गई है। इसमें एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों की चर्चा है। इसमें चतुरिन्द्रिय तक केवल मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, जबकि पञ्चेन्द्रिय में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं।
इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति में इन्द्रिय-मार्गणा की चर्चा करते हुए एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों के भेद-प्रभेदों की विस्तार से चर्चा की गई हैं। इसमें यह बताया गया है कि एकेन्द्रिय जीव, बादर (स्थूल) और सूक्ष्म ऐसे दो प्रकार के होते हैं। पुनः इन दोनों ही प्रकारों के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे
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