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भूमिका
४३
गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास
सारिणी क्रमांक - १ तत्त्वार्थ एवं तत्त्वार्थ- | कसायपाहुडसुत्त समवायांग | षट्- | श्वेताम्बर-दिगम्बर भाष्य
खण्डागम | जीव- | तत्त्वार्थ की टीकाएँ
आराधना, मूलाचार समयसार, नियमसार आदि।
समास
३री-४थी शती ४थी शती ५वीं-छठी शती ६ठी शती या उसके
पश्चात् गुणस्थान, जीव- गुणस्थान, जीवस्था- समवायांग में गुणस् गुणस्थान शब्द की समास, जीवस्थान, न, जीवसमास आदि थान शब्द का अभाव | स्पष्ट उपस्थिति। मार्गणा आदि शब्दों शब्दों का अभाव, किन्तु जीवठाण का का पूर्ण अभाव। | किन्तु मार्गणा शब्द उल्लेख है जबकि पाया जाता है। जीवसमास एवं षट्
| खण्डागम में प्रारम्भ | में जीवसमास और बाद में गुणस्थान के नाम से १४ अवस्थाओं का चित्रण।
कर्मविशुद्धि या कर्मविशुद्धि या आ-| १४ अवस्थाओं का | १४ अवस्थाओं का आध्यात्मिक विकास ध्यात्मिक विकास की उल्लेख है। | उल्लेख है। की दस अवस्थाओं दृष्टि से मिथ्यादृष्टि का चित्रण, मिथ्यात्व | की गणना करने पर का अन्तर्भाव करने | प्रकार भेद से कुल पर ११ अवस्थाओं १३ अवस्थाओं का का उल्लेख। उल्लेख।
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सास्वादन, सम्यक् सास्वादन (सासादन) सास्वादन, सम्यक् | उल्लेख है। मिथ्यादृष्टि और और अयोगी केवली | मिथ्यादृष्टि (मिश्रअयोगी केवली दशा अवस्था का पूर्ण दृष्टि) और अयोगी का पूर्ण अभाव। अभाव, किन्तु सम्य- केवली आदि का
मिथ्यादृष्टि की| उल्लेख है। उपस्थिति।
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