Book Title: Sramana 1999 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 5
________________ २ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ _ 'पाणा पाणे किलेसति' - यह एक तथ्य है कि प्राणी, प्राणियों को क्लेश पहुँचाते हैं, लेकिन महावीर यहाँ जिस बात की ओर हमें विशेषकर संकेत करते हैं वह यह है कि प्राणियों का एक-दूसरे के प्रति ऐसा व्यवहार संसार में महाभय व्याप्त करता है उनकी चिन्ता है कि आतंक से आख़िर प्राणियों को किस प्रकार छुटकारा प्राप्त कराया जाए। जहाँ तक मनुष्य का सम्बन्ध है, एक विचारशील प्राणी होने के नाते, उससे तो यह अपेक्षा की ही जा सकती है कि वह कम से कम इस आतंक का कारण न बने। लेकिन ऐसा वस्तुत: है नहीं। बल्कि इस महाभय को प्रश्रय देने में मनुष्य का योगदान शायद सबसे अधिक ही हो। महावीर संकेत करते हैं कि तनिक आतुर व्यक्तियों को देखो तो। वे कहीं भी क्यों न हों, हर जगह प्राणियों को परिताप देने से बाज़ नहीं आते तत्थ-तथ्त पुढो पास, आतुरा परितावेंति। (८/१५) ये आतुर लोग आख़िर हैं कौन? सामान्यत: हम सभी तो आतुर हैं। वह बीमार मानसिकता जो व्यक्ति को अधीर बनाती है वस्तुत: उसकी देहासक्ति है। हम आतुर मनुष्य कहें, आसक्त कहें- बात एक ही है। महावीर कहते हैं, इसलिए आसक्ति को देखो। इसका स्वरूप ही ऐसा है कि वह हमारे मार्ग में सदैव रोड़ा बनती है और फिर भी हम उसकी ओर खिंचे ही चले जाते हैं - तम्हा संगं ति पासह। गंथेहिं गढिया णरा, विसण्णा कामविप्पिया। (२५२/१०८-१०९) महावीर हमें यह देखने के लिए निर्देश देते हैं कि वे लोग जो देहासक्त हैं, पूरी तरह से पराभूत हैं। ऐसे लोग बार-बार दुःख को प्राप्त होते हैं। वस्तुत:, वे बताते हैं, इस जगत् में जितने लोग भी हिंसा-जीवी हैं, इसी कारण से हिंसा-जीवी हैं। देह और दैहिक विषयों के प्रति व्यक्ति का लगाव ही हिंसा का कारण है पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे। एत्थ फासे पुणो पुणो। आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी, एएसु चेव आरंभजीवी। (१७८/१३-१५) महावीर कहते हैं कि संसार में व्याप्त आतंक और महाभय जिस व्यक्ति ने देख और समझ लिया है, वही हिंसा से निवृत्त होने में सफल हो सकता है (पृ० ४३/१४६, १४५)। आतुर लोग जहाँ स्थान-स्थान पर परिताप देते हैं, वहीं दूसरी ओर देखो कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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