Book Title: Siddh Hemchandra Vyakaranam
Author(s): Himanshuvijay
Publisher: Anandji Kalyanji Pedhi
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[८१२] प्राकृतव्याकरणम् अगलिअ-नेह-निवहाहं जोअण--लक्खुवि जाउ । परिस--सएण वि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ । पुंसीति किम् ।
अङ्गहिं अङ्गु न मिलिउ हलि अहरें अहरु न पत्तु । पिअ जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्बइ सुरउ समत्तु ॥३३२॥
एट्टि। ८ । ४ । ३३३ । अपभ्रंशे अकारस्य टायामेकारो भवति । जे महु दिण्मा दिअहडा दहएं पवसन्तेण । ताण गणन्तिए अङ्गुलिउ जजरिआउ नहेण ॥ ३३३॥
डिनेच्च । ८।४ । ३३४ । अपभ्रंशे अकारस्य डिना सह इकार एकारश्च भवतः। सायरु उप्परि तणु धरइ तलि घल्लइ रयणाई । सामि सुभिच्चु वि परिहरइ सम्माणेइ खलाई ॥ तले घल्लई। ३३४॥
मिस्येदा । ८ । ४ । ३३५ । अपभ्रंशे अकारस्य भिसि परे एकारो वा भवति । गुणहिं न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुञ्जन्ति । फैसरि न लहइ बोडिअधिगय लक्खेहिं घेप्पन्ति ॥३३५॥
उसे हैं-हू । ८।४।३३६ । अस्पैति पश्चम्यन्तं विपरिणम्यते । अपभ्रंशे अकारास्परस्य उसे हु इत्यादेशौ भवतः ।
वच्छहे गृहह फलई जणु कडु-पल्लव वज्जेइ । . तोवि महहुमु सुअणु जिव ते उच्छनि धरेई । वच्छहु गृण्हइ ॥ ३३६ ॥
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