Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 49
________________ डॉ. सुदर्शनलाल जैन 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) -- व्याख्यात्मक कथन होने से इसे व्याख्याप्रज्ञप्ति कहते हैं। पूज्य और विशाल होने से इसे श्वेताम्बर "भगवती" भी कहते हैं। यह कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। प्रारम्भ के 20 शतक प्राचीन हैं। 6. ज्ञाताधर्मकथा -- इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 19 अध्ययन है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में धर्मकथाओं के 10 वर्ग हैं। इस कथा ग्रन्थ की मुख्य और अवान्तर कथाओं में आई हुई अनेक घटनाओं से तथा विविध प्रकार के वर्णनों से तत्कालीन इतिहास और संस्कृति की जानकारी मिलती है। 7. उपासकदशा --- इसमें आनन्द आदि 10 उपासकों की कथायें हैं। प्रायः सभी कथायें एक जैसी है। 8. अन्तकृदशा -- "अन्तकृत" शब्द का अर्थ है -- संसार का अन्त करने वाले। इसमें ऐसे ही अन्तकृतों की कथायें हैं। इसमें 8 वर्ग हैं जिनमें प्रथम 5 वर्ग कृष्ण और वासुदेव से सम्बन्धित हैं, षष्ठ और सप्तम वर्ग भगवान महावीर के शिष्यों से सम्बन्धित है तथा अष्टम वर्ग राजा श्रेणिक की काली आदि 10 भार्याओं की कथा से सम्बन्धित है। 9. अनुत्तरोपपातिकदशा -- (विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि के वैमानिक देव अनुत्तर अर्थात् श्रेष्ठ कहलाते हैं) जो उपपाद जन्म से अनुत्तरों में उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुत्तरोपपातिक कहते है। ऐसे व्यक्तियों का इसमें वर्णन है। इसमें तीन वर्ग हैं जिनमें 33 अध्ययन हैं। ___10. प्रश्नव्याकरण -- इसमें प्रश्नों के उत्तर (व्याकरण) नहीं है अपितु पाँच आसवार ( हिंसादि) और पाँच संवरद्वार ( अहिंसादि) रूप 10 अध्ययन है। 11. विपाकसूत्र--विपाक का अर्थ है -- "कर्मफल"। पापरूप और पुण्यरुप कर्मों के फलों का कथन है। दो श्रुतस्कन्ध है जिनमें 10+10 अध्ययन है। 12. दृष्टिवाद -- यह ग्रन्थ लुप्त हो गया है। इसमें स्वसमय और परसमय की सभी प्ररूपणायें थीं। यह 5 भागों में विभक्त था -- परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। यह विशालकाय ग्रन्थ रहा है। पूर्वो के कारण इसका अधिक महत्त्व था। दिगम्बर आगम ग्रन्थों (षट्खण्डागम और कषायपाहुड) का उद्गम स्रोत यही ग्रन्थ माना गया है। 11 अङअंग से पृथक् इसका उल्लेख दोनों सम्प्रदायों में मिलता है। अंगबाहय -- इन्हें पहले प्रकीर्णक कहा जाता था। निरयावलिया में इन्हें उपांग भी कहा गया है परन्तु अब ये दोनों नाम दूसरे अर्थ में रुढ़ हो गये हैं। उपांग ग्रन्थ -- इनकी रचना स्थविरों ने की है। इनका अङअंग के साथ सम्बन्ध नहीं है। ये स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। उपांग शब्द का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है। 1. औषपातिक -- इसमें 43 सूत्र है। चम्पानगरी के वर्णन से ग्रन्थ का प्रारम्भ होता है। इसका सांस्कृतिक, सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि से महत्त्व है। इसमें मनुष्यों के भव सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने अनेक विषयों का प्रतिपादन किया है। 2. राजप्रश्नीय -- इसमें 217 सूत्र है और दो भागों में विभक्त है। इसका प्रारम्भ आमलकल्पा नगरी के वर्णन से होता है। इसमें राजा परासी (प्रदेशी) द्वारा किये गये प्रश्नों का समाधान केशि मनि के द्वारा किया गया है। 3. जीवाजीवाभिगम (जीवाभिगम) -- इसमें 9 प्रतिपत्ति (प्रकरण ) और 272 सूत्र है जिनमें जीव और अजीव के भेद-प्रभेदों का वर्णन है। 40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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