Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 126
________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय आठवीं शती के पूर्व नहीं माना जा सकता। उपकेशगच्छ में कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि इन तीन पट्टधर आचार्यों के नामों की प्रायः पुनरावृत्ति होती रही है, जिससे प्रतीत होता है कि इस गच्छ के अनुयायी श्रमण चैत्यवासी रहे होंगे। इस गच्छ में कई प्रभावक और विद्वान् आचार्य हो चुके हैं जिन्होंने साहित्योपासना के साथ-साथ नवीन जिनालयों के निर्माण, प्राचीन जिनालयों के जीर्णोद्धार तथा जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना द्वरा पश्चिम भारत में श्वेताम्बर श्रमण परम्परा को जीवन्त बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अन्यान्य गच्छों की भाँति उपकेशगच्छ से भी कई अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ। जैसे वि.सं. 1266/ई.सन् 1210 में द्विवंदनीक शाखा, वि.सं. 1308/ई. सन् 1252 में खरतपाशाखा तथा वि.सं. 1498/ई.सन् 1442 में खादिरीशाखा अस्तित्त्व में आयी। इसके अतिरिक्त इस गच्छ की दो अन्य शाखाओं-ककुदाचार्यसंतानीय और सिद्धाचार्यसंतानीय का भी पता चलता है, किन्तु इनकी उत्पत्तिकाल के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। उपकेशगच्छ के इतिहास से सम्बद्ध पर्याप्त संख्या में इस गच्छ के मुनिजनों के कृतियों की प्रशस्तियाँ, मुनिजनों के अध्ययनार्थ या उनकी प्रेरणा से प्रतिलिपि करायी गयी प्राचीन ग्रन्थों की दाताप्रशस्तियाँ तथा दो प्रबन्ध [ उपकेशगच्छप्रबन्ध और नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबन्ध- रचनाकाल वि.सं. 1393/ई.सन् 13361 और उपकेशगच्छ की कुछ पट्टावलियाँ उपलब्ध है। इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित बड़ी संख्या में जिनप्रतिमायें प्राप्त होती हैं जिनमें से अधिकांश लेखयुक्त है। इसके अतिरिक्त इस गच्छ के मुनिजनों की प्रेरणा से निर्मित सर्वतोभद्रयंत्र, पंचकल्याणकपट्ट, तीर्थङ्करों के गणधरों की चरणपादुका आदि पर भी लेख उत्कीर्ण हैं। ये सब लेख वि.सं. 1011 से वि.सं. 1918 तक के हैं। उपकेशगच्छ के इतिहास के लेखन में उक्त साक्ष्यों का विशिष्ट महत्त्व है। उपकेशगच्छीय साक्ष्यों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि वि.सं. की 10वीं शताब्दी से लेकर वि.सं. की 16वीं शताब्दी तक इस गच्छ के मुनिजनों का समाज पर विशेष प्रभाव रहा, किन्तु इसके पश्चात् इसमें न्यूनता आने लगी, फिर भी 20वीं शती के प्रारम्भ तक निर्विवादरूप से इस गच्छ का स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहा।15 काशहृद-गच्छ अर्बुदगिरी की तलहटी में स्थित काशहद (वर्तमान कासीन्द्रा या कायन्द्रा) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। जालिहरगच्छ के देवप्रभसूरि द्वारा रचित पदमप्रभचरितारचनाकाल वि.सं. 1254/ई.सन् 11981 की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि काशहद और जालिहर ये दोनों विद्याधरगच्छ की शाखायें हैं। यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, इस गच्छ के आदिम आचार्य कौन थे, इस बारे में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती। प्रश्नशतक और ज्योतिषचतुर्विशतिका के रचनाकार नरचन्द्र उपाध्याय इसी गच्छ के थे। प्रश्नशतक का रचनाकाल वि.सं. 1324/ई.सन् 1268 माना जाता है। विक्रमचरित [रचनाकाल वि.सं. 1471/ई.सन् 1415 के आस-पास के रचनाकार उपाध्याय देवमूर्ति इसी गच्छ के थे।17 इस गच्छ से सम्बद्ध कुछ प्रतिमालेख भी प्राप्त होते हैं जो वि.सं. 1222 से वि.सं. 1416 तक के हैं। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विक्रम सम्वत की 13वीं शती से 15वीं शती के अन्त तक इस गच्छ का अस्तित्व सिद्ध होता है। इस गच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों की विरलता को देखते हुए यह माना जा सकता है कि अन्य गच्छों की अपेक्षा इस गच्छ के अनुयायी श्रावकों और श्रमणों की संख्या अल्प थी। 16वीं शती से इस गच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों के नितान्त अभाव से यह कहा जा सकता है कि इस गच्छ के अनुयायी मुनिजन और श्रावक किन्हीं अन्य बड़े गच्छ में सम्मिलित हो गये होंगे। 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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