Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 156
________________ प्रो. नरेन्द्र भानावत . इनके क्रांतिमूलक विचारों से लोग बड़े प्रभावित हुए। कहा जाता है कि अर्हट्ठवाडा, पाटन, सूरत आदि संघों के नागंजी, दुलीचन्दजी, मोतीचन्दजी तथा शंभूजी, ये चारों संघपति जब लोकांशाह से मिले, उनके विचार सुने तो विशेष प्रभावित हुए। कहा जाता है कि सं. 1531 में 45 व्यक्तियों ने इनके विचारों से प्रेरित-प्रभावित होकर जैन दीक्षा अंगीकृत की। ___ इनके नाम पर इनका मत लोकागच्छ कहा जाने लगा। पर यह शीघ्र ही तीन भागों में बँट गया। गुजराती लोकागच्छ, नागोरी लोकागच्छ, लाहोरी उत्तरार्द्ध लोकागच्छ। आगे चलकर इस मत में भी धर्म के नाम पर शिथिलता बढ़ी। तब मुनि जीवराजजी, लवजी, धर्मसिंहजी और धर्मदासजी ने क्रान्ति की और स्थानकवासी सम्प्रदाय अस्तित्व में आया। धर्मदासजी के हरजी धन्नाजी आदि २२ शिष्यों के नाम पर यह सम्प्रदाय बाईस टोला भी कहलाता है। वर्तमान में इस सम्प्रदाय में श्रमण संघ के आचार्य श्री आनन्दऋषिजी, आचार्य श्री रतनचन्द्रजी म. के सम्प्रदाय के आचार्य हस्तीमलजी एवं आचार्य श्री हुकमीचन्दजी म. की परम्परा के आचार्य नानालालजी म. मौजूद हैं। ज्ञातव्य है कि आचार्य आनन्दऋषिजी एवं आचार्य हस्तीमलजी का अब स्वर्गवास हो गया है। मुनियों के स्थानक में रहने के कारण यह सम्प्रदाय स्थानकवासी कहा जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से आत्म-गुण ही जिसका स्थान है, वह स्थानकवासी है। लोकाशाह का अपने समय में बड़ा विरोध हुआ। उनके सम्बन्ध में अधिकांश जानकारी उनके विरोध में लिखे गये साहित्य से ही प्राप्त होती है। लोकाशाह ने जिस साहित्य की रचना की, वह आज पूरे रूप में उपलब्ध नहीं है। उनके चौतीस बोल, अट्ठावन बोल तथा उनसे पूछे गये तेरह प्रश्नों के उत्तर आदि उपलब्ध है। 2. श्वेताम्बर तेरापन्थ श्वेताम्बर तेरापन्थ सम्प्रदाय के प्रवर्तक सन्त भीखणजी हैं। इनका जन्म जोधपुर राज्य के कंटालिया ग्राम में सं. 1783 की आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को हुआ। इनके पिता का नाम शाह बल्लूजी संकलेचा और माता का नाम दीपाबाई था। ये सत्यशोधक, दम्भविरोधी, सुधारवादी प्रवृत्ति के धर्म जिज्ञासु व्यक्ति थे। इनके माता-पिता गच्छवासियों (यतियों) के अनुगामी थे। वहाँ इनकी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई तो ये पोतियाँबन्ध सम्प्रदाय के साधुओं के पास व्याख्यान आदि सुनने जाया करते, पर वहाँ भी इनको संतोष नहीं हुआ तो ये स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य श्री रघुनाथजी के अनुगामी बन गये और सं. 1808 में उनसे बगड़ी में दीक्षा अंगीकृत कर ली। सं. 1815 में इनका चातुर्मास राजनगर (मेवाड़) में हुआ। इनके साथ टोकरजी, हरनाथजी, वीरभानजी और भारमलजी ये चार साधु थे। राजनगर के श्रावकों में साधु समाज के आचार-विचार को लेकर कई शंकाएँ थीं। स्थान, वस्त्र-पात्र सम्बन्धी मर्यादा, शिष्य मोह आदि को लेकर ये वर्तमान आचार व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे। सन्त भीखणजी की उनके साथ ज्ञान चर्चा हुई और अन्ततः उन्हें लगा कि वर्तमान आचार-व्यवस्था में सुधार की अपेक्षा है। आचार्य रघुनाथजी के सान्निध्य में पहुँचकर सन्त भीखणजी ने राजनगर के श्रावकों की शंकाओं को सही बताया और उसमें सुधार के लिए आग्रह किया। कहा जाता है कि रघुनाथजी के साथ मतभेद होने के कारण उन्होंने उनसे बगड़ी में सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। यह घटना सं. 1817 चैत्र शुक्ला नवमी की है। सम्त भीखणजी के साथ 12 अन्यं साधु थे। उनके नाम हैं :-- थिरपालजी, फतेहचन्दजी, वीरभाणजी, टोकरजी, हरनाथजी, भारमलजी, लक्ष्मीचन्दजी, बख्तरामजी, गुलाबचन्दजी, भारमलजी (दूसरे), रूपचन्दजी और प्रेमजी। कहा जाता है कि एक दिन जोधपुर के श्रावक बाजार में एक दुकान पर सामायिक कर रहे थे। उस दिन जोधपुर राज्य के दीवान श्री फतेहमलजी सिंघी ने उन श्रावकों को बाजार में सामायिक करते देखा तो कुछ आश्चर्य हुआ, पूछने पर पता चला कि सन्त भीखणजी आचार्य रघुनाथजी से अलग हो गये है इनका मानना है कि साधुओं के निमित्त बने हुए स्थानक में नहीं ठहरना चाहिये। अतः स्थानक छोड़कर वे यहाँ सामायिक कर रहे हैं। 147 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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