Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 155
________________ जैनधर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का उद्भव एवं इतिहास 1. लोकाशाह और स्थानकवासी सम्प्रदाय लोकाशाह एक क्रांतिकारी, अध्ययनशील, निर्भीक और साहसी श्रावक थे। इनकी जन्मतिथि, जन्म-स्थान, दीक्षा आदि के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। इनके जन्म के सम्बन्ध में मोटेतौर से तीन मत प्रचलित हैं -- सं. 1472, 1475 और 14821 कार्तिक पूर्णिमा इनकी जन्म तिथि मानी जाती है। जन्म स्थान के सम्बन्ध में भी मतभेद हैं। अर्हट्टवाड़ा (सिरोही), पाटन, अहमदाबाद, लिंबडी और जालोर का नाम लिया जाता है। बहुत सम्भव है "अर्हट्टवाड़ा" इनकी जन्म भूमि रही हो। धार्मिक क्रांति का विशेष कार्य अहमदाबाद से ही हुआ। इनके माता-पिता के नाम के सम्बन्ध में भी मतभेद है। अधिकांश विद्वानों का मत है कि अर्हट्टवाड़ा के चौधरी हेमाभाई इनके पिता थे और माता का नाम था गंगाबाई था। इनका विवाह सिरोही के प्रसिद्ध सेठ शाह औधवजी की सुपुत्री सुदर्शना के साथ हुआ, जिनसे पूर्णचन्द नामक एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ। जब ये 23 वर्ष के थे इनकी माता का और 25वें वर्ष में पिता का देहान्त हो गया। इनका निधन सं. 1546 में चैत्र शुक्ला एकादशी को हुआ माना जाता है। लोकाशाह मधुरभाषी, अध्यवसायी और प्रभावशाली व्यक्ति थे। सिरोही और चन्द्रावती इन दोनों राज्यों के बीच युद्धजन्य स्थिति के कारण अराजकता और व्यापारिक अव्यवस्था फैल जाने से ये अहमदाबाद आ गये और जवाहरात का व्यापार करने लगे। अल्पसमय में ही इन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली। कहा जाता है कि अहमदाबाद के तत्कालीन शासक मोहम्मदशाह के दरबार में सूरत का एक जौहरी दो मोती लेकर आया। बादशाह ने इनकी परख के लिए शहर के प्रमुख जौहरियों को बुलाया। सभी जौहरियों ने दोनों मोतियों को सच्चा बताया, पर लोकाशाह ने एक मोती को सदोष और दूसरे को नकली बताया। मोती की इस परीक्षा को देखकर बादशाह इनकी विलक्षण बुद्धि से अत्यन्त प्रभावित हुआ और इन्हें अपना कोषाध्यक्ष बना दिया। इस पद पर वे दस वर्ष तक रहे। पर जब मोहम्मदशाह को उसके पुत्र कुतुबशाह ने जहर देकर मार डाला तो इस क्रूर हत्या से लोकाशाह का हृदय पसीज गया और राग-रंग से उन्होंने मुक्ति ले ली। लोकाशाह सत्यान्वेषक और तत्त्व चिन्तक थे। उनके अक्षर बड़े सुन्दर थे। एक बार ज्ञानसुन्दर नामक एक यति इनके यहाँ गोचरी के लिए आये। इनके सुन्दर अक्षरों को देखकर उन्होंने लोकाशाह को शास्त्रों की नकल करने के लिए कहा। शास्त्रों की नकल करते हुए जब इनका ध्यान दशवैकालिकसूत्र की निम्नलिखित प्रथम गाथा पर गया तो वे चिन्तन में डूब गये-- "धम्मो मंगलमुक्किळं, अहिंसा संजमो तवो।' देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो।।1।। वे विचार करने लगे कि भगवान महावीर ने अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म को सर्वश्रेष्ठ मंगल कहा है और इस धर्म का आचरण.करने वाले को देवता भी नमस्कार करते हैं, पर वर्तमान में तो लोग पाषाण-प्रतिमारप देवताओं को नमन करने में लगे हुए हैं। ज्यों-ज्यों उनका शास्त्राभ्यास बढ़ता गया, धर्म के नाम पर बढ़ती हुई विकृति को देखकर वे आश्चर्यचकित रह गये। उन्हें लगा कि धर्म में अहिंसा का स्थान हिंसा ने ले लिया है। उसके विधि-विधान या द्रव्य पूजा आदि के बाहरी संस्कार में उन्हें हिंसा दिखाई दी। आत्म-संयम की बजाय मनौती के नाम पर इन्द्रियभोग की कामना का प्रवाह उमड़ता हुआ दिखाई दिया। तप के नाम पर उन्हें लगा कि साधु वर्ग सुख-सुविधाओं का आदी बनता जा रहा है। लोकाशाह ने अहिंसा, संयम और तप रूप शुद्ध आत्मधर्म की आराधना के लिए पाषाण-प्रतिमास्प जड़ पूजा का आलम्बन छोड़कर समताभावरूप सामायिक-प्रतिक्रमण को महत्त्व दिया, आत्मगुणवृद्धिस्प पौषध व्रत पर विशेष बल दिया। भक्ति के स्थान पर ज्ञान का, ध्यान का महत्त्व प्रतिष्ठापित किया और मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लिए भगवान से कुछ माँगने के बजाय परिग्रह-वृत्ति से मुक्त होने के लिए भूखों को भोजन, रोगियों को औषधि, भयग्रस्त प्राणियों को अभय एवं अशिक्षितों को ज्ञान देने की महत्ता प्रतिपादित की। उन्होंने मूर्तिपूजा के स्थान पर गुरुवंदन, सत्संग, स्वाध्याय और सदाचरण पर बल दिया। सजे-सजाये मन्दिरों में रहने की बजाय साधारण स्थानकों में ठहरने की बात कही। जंत्र-मंत्र, टोने-टोटके, आडम्बर-प्रदर्शन आदि विधि-विधानों का विरोध किया। 146 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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