Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 127
________________ शिवप्रसाद कृष्णर्षिगच्छ प्राक्मध्ययुगीन और मध्ययुगीन श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में कृष्णर्षिगच्छ भी एक है। आचार्य वटेश्वर क्षमाश्रमण के प्रशिष्य और यक्षमहत्तर के शिष्य कृष्णमुनि की शिष्य संतति अपने गुरु के नाम पर कृष्णर्षिगच्छीय कहलायी। धर्मोपदेशमालाविवरण [रचनाकाल वि.सं. 915/ई.सन् 859] के रचयिता जयसिंहसूरि, प्रभावकशिरोमणि प्रसन्नचन्द्रसूरि, निस्पृहशिरोमणि महेन्द्रसूरि, कुमारपालचरित [वि.सं. 14221 ई.सन् 13661 के रचनाकार जयसिंहसूरि, हम्मीरमहाकाव्य [ रचनाकाल वि.सं. 1444/ई.सन् 1386 ] और रम्भामंजरीनाटिका के कर्ता नयचन्द्रसूरि इसी गच्छ के थे। इस गच्छ में जयसिंहसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, नयचन्द्रसूरि इन तीन पट्टधर आचार्यों के नामों की पुनरावृत्ति मिलती है, जिससे अनुमान होता है कि यह चैत्यवासी गच्छ था। इस गच्छ से सम्बद्ध पर्याप्त संख्या में अभिलेखीय साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं जो वि. सं. 1287 से वि.सं. 1616 तक के हैं। अभिलेखीय साक्ष्यों से इस गच्छ की कृष्णर्षितपाशाखा का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इस शाखा के वि.सं. 1450 से 1473 तक के लेखों में पुण्यप्रभसूरि, वि.सं. 1483-1487 के लेखों में शिष्य जयसिंहसूरि तथा वि.सं. 1503-1508 के लेखों में जयसिंहसूरि के प्रथम पट्टधर जयशेखरसूरि तथा वि.सं. 1510 के एक लेख में उनके द्वितीय पट्टधर कमलचन्द्रसूरि का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु इस शाखा के प्रवर्तक कौन थे, यह शाखा कब अस्तित्व में आयी, इस सम्बन्ध में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती। वि.सं. की 17वीं शती के पश्चात् कृष्णर्षिगच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों का अभाव है। इससे प्रतीत होता है कि इस समय तक इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो चुका था। कोरंटगच्छ9 आबू के निकट कोरटा [प्राचीन कोरंट] नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। उपकेशगच्छ की एक शाखा के रूप में इस गच्छ की मान्यता है। इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को कक्कसूरि, सर्वदेवसूरि और नन्नसूरि ये तीन नाम पुनः पुनः प्राप्त होते रहे। इस गच्छ का सर्वप्रथम उल्लेख वि.सं. 1201 के एक प्रतिमालेख में और अन्तिम उल्लेख वि.सं. 1619 में प्रतिलिपि की गयी राजप्रश्नीयसूत्र की दाताप्रशस्ति में प्राप्त होता है। इस गच्छ से सम्बद्ध मात्र कुछ दाताप्रशस्तियाँ तथा बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं। ये लेख वि.सं. 1612 तक के है। लगभग 400 वर्षों के अपने अस्तित्वकाल में इस गच्छ के अनुयायी श्रमण शास्त्रों के पठन-पाठन की अपेक्षा जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा में अधिक सक्रिय रहे। खंडिलगच्छ20 इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं यथा भावडारगच्छ, कालिकाचार्यसंतानीय, भावड़गच्छ, भावदेवाचार्यगच्छ, खंडिल्लगच्छ आदि। प्रभावकचरित में चन्द्रकल की एक शाखा के रूप में इस गच्छ का उल्लेख मिलता है। इस गच्छ में पट्टधर आचार्यों को भावदेवसूरि, विजयसिंहसूरि, वीरसूरि और जिनदेवसूरि ये चार नाम पुनः पुनः प्राप्त होते रहे। पार्श्वनाथचरित [ रचनाकाल वि.सं. 1412/ई.सन् 13561 के रचनाकार भावदेवसरि इसी गच्छ के थे। इसकी प्रशस्ति के अन्र्तगत उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है-- भावदेवसूरि विजयसिंहसूरि वीरसूरि जिनदेवसूरि 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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