Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 125
________________ शिवप्रसाद चाहमाननरेश अर्णोराज [ई.सन् 1139-11531 की राजसभा में दिगम्बर आचार्य कुलचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाले आचार्य धर्मघोषसूरि राजगच्छीय आचार्य शीलभद्रसूरि के शिष्य थे। चूँकि ये अपने जीवनकाल में यथेष्ठ प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे, अतः इनकी मृत्यु के पश्चात् इनकी शिष्य संतति धर्मघोषगच्छीय कहलायी। इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न कारणों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ का विभाजन होता रहा और नये-नये गच्छ अस्तित्व में आते रहे। इन गच्छों का इतिहास जैनधर्म के इतिहास का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अध्याय है, परन्तु इस ओर अभी तक विद्वानों का ध्यान बहुत कम ही है। आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व महान् साहित्यसेवी स्व. श्री अगरचन्द जी नाहटा ने यतीन्द्रसूरि अभिनन्दनग्रन्थ में "जैन श्रमणों के इतिहास पर संक्षिप्त प्रकाश" नामक लेख प्रकाशित किया था और लेख के प्रारम्भ में ही विद्वानों से यह अपेक्षा की थी कि वे इस कार्य के लिये आगे आयें। स्व. नाहटा जी के उक्त कथन को आदेश मानते हुए प्रो. एम.ए. ढांकी और प्रो. सागरमल जैन की प्रेरणा और सहयोग से मैंने श्वेताम्बर श्रमणों के गच्छों के इतिहास लेखन का कार्य प्रारम्भ किया है। यद्यपि मैंने साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर विभिन्न गच्छों का इतिहास लिखने का प्रयास किया है, किन्तु प्रस्तुत लेख में गच्छों का मात्र परिचयात्मक विवरण आवश्यक होने से नाहटा जी के उक्त लेख का अनुसरण करते हुए गच्छों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। अंचलगच्छ अपरनाम विधिपक्ष वि.सं. 1159 या 1169 में उपाध्याय विजयचन्द्र [बाद में आर्यरक्षितसरि बरा विधिपक्ष का पालन करने के कारण उनकी शिष्य-संतति विधिपक्षीय कहलायी।1 प्रचलित मान्यता के अनुसार इस गच्छ के अनुयायी श्रावकों द्वारा मुंहपत्ती के स्थान पर वस्त्र के कोर (अंचल) से वन्दन करने के कारण अंचल्गच्छ नाम प्रचलित हुआ। इस गच्छ में अनेक विद्वान् आचार्य और मुनिजन हुए हैं, परन्तु उनमें से कुछ आचार्यों की कृतियाँ आज उपलब्ध होती हैं। इस गच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं। इनमें प्राचीनतम लेख वि.सं. 1206 का है। अपने उदय से लेकर आज तक इस गच्छ की अविच्छिन्न परम्परा विद्यमान है। ___ आगमिकगच्छ13 पूर्णिमापक्षीय शीलगुणसूरि और उनके शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा जीवदयाणं तक का शक्रस्तव, 67 अक्षरों का परमेष्ठीमंत्र और तीनस्तति से देववंदन आदि बातों में आगमों का समर्थन करने के कारण वि.सं. 1214 या वि.सं. 1250 में आगमिकगच्छ या त्रिस्तुतिकमत की उत्पत्ति हुई। इस गच्छ में यशोभद्रसूरि, सर्वाणंदसूरि, विजयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमप्रभसूरि, आनन्दप्रभसूरि आदि कई प्रभावक आचार्य हुए जिन्होंने साहित्यसेवा और धार्मिक क्रियाकलापों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवन्त बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। आगमिकगच्छ से सम्बद्ध विपुल परिमाण में आज साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा लिखे गये ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ तथा कुछ पट्टावलियाँ आदि हैं। इस गच्छ से सम्बद्ध लगभग 200 प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं जो वि.सं. 1420 से लेकर वि.सं. 1683 तक के हैं। उपलब्ध साक्ष्यों से इस गच्छ की दो शाखाओं-धंधूकीया और विलाबंडीया का पता चलता है। उपकेशगच्छ14 पूर्वमध्यकालीन और मध्यकालीन श्वेताम्बर परम्परा में उपकेशगच्छ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। जहाँ अन्य सभी गच्छ भगवान महावीर से अपनी परम्परा जोड़ते हैं, वहीं उपकेशगच्छ अपना सम्बन्ध भगवान पार्श्वनाथ से जोड़ता है। अनुश्रुति के अनुसार इस गच्छ का उत्पत्ति स्थल उपकेशपुर (वर्तमान ओसिया-राजस्थान) माना जाता है। परम्परानुसार इस गच्छ के आदिम आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीर सम्वत 70 में ओसवालगच्छ की स्थापना की, परन्तु किसी भी प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्य से इस बात की पुष्टि नहीं होती। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ओसवालों की स्थापना और इस गच्छ की उत्पत्ति का समय ई. सन की 116 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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