Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 132
________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय साहित्योपासना, तीर्थोद्धार, नतन जिनालयों के निर्माण की प्रेरणा, जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि बरा मध्ययुग में श्वेताम्बर श्रमण परम्परा को चिरस्थायित्व प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस गच्छ से सम्बद्ध लगभग 200 अभिलेख मिले हैं जो वि.सं. 1303 से वि.सं. 1691 तक के है। ये लेख जिनमन्दिरों के स्तम्भादि और तीर्थंकर प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं, जो धर्मघोषगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं। नागपुरीयतपागच्छ वडगच्छीय आचार्य वादिदेवसूरि के एक शिष्य पद्मप्रभसूरि ने नागौर में वि.सं. 1174 या 1177 में उग्र तप का 'नागौरीतपा विरुद् प्राप्त किया। उनकी शिष्य संतति 'नागपुरीयतपागच्छ के नाम से विख्यात हुई।33 मुनिजिनविजय द्वारा संपादित विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह और श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई द्वारा लिखित जैनगुर्जरकविओ भाग-2 में इस गच्छ की पट्टावली प्रकाशित हुई है। इसी गच्छ में 16वीं शती में पार्श्वचन्द्रसूरि हुए जिनके नाम पर पावचन्द्रगच्छ का उदय हुआ जो वर्तमान में भी अस्तित्त्ववान है। इन गच्छों का विशिष्ट अध्ययन अपेक्षित है। ___ नागेन्द्रगच्छ जिस प्रकार चन्द्रकुल बाद में चन्द्रगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसी प्रकार नागेन्द्रकुल भी नागेन्द्रगच्छ के नाम से विख्यात हुआ। पूर्व मध्ययुगीन और मध्ययुगीन गच्छों में इस गच्छ का विशिष्ट स्थान रहा। इस गच्छ में अनेक विद्वान् आचार्य हुए हैं। अणहिलपुरपाटन के संस्थापक वनराज चावड़ा के गुरु शीलगुणसूरि इसी गच्छ के थे। उनके शिष्य देवचन्द्रसूरि की एक प्रतिमा पाटन में विद्यमान है। अकोटा से प्राप्त ई. सन् की सातवीं शताब्दी की दो जिनप्रतिमाओं पर नागेन्द्रकुल का उल्लेख मिलता है।4 महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के गुरु विजयसेनसूरि इसी गच्छ के थे। इसी कारण उनके द्वारा बनवाये गये मन्दिरों में मूर्तिप्रतिष्ठा उन्हीं के कर-कमलों से हुई। जिनहर्षगणि द्वारा रचित वस्तुपालचरित [रचनाकाल वि.सं. 1497/ई. सन् 14411 से ज्ञात होता है कि विजयसेनसरि के उपदेश से ही वस्तुपाल-तेजपाल ने संघयात्रायें की और ग्रन्थभंडार स्थापित किये तथा जिनमंदिरों का निर्माण कराया। इनके शिष्य उदयप्रभसूरि ने धर्माभ्युदयमहाकाव्य [ रचनाकाल वि.सं. 1290/ई.सन् 1234] और उपदेशमालाटीका [रचनाकाल वि.सं. 1299/ई.सन् 12431 की रचना की। इनकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा का सुन्दर विवरण दिया है जो इस गच्छ के इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वासुपूज्यवरित । रचनाकाल वि.सं. 1299/ई.सन् 12431 के रचयिता वर्धमानसूरि और प्रबन्धचिन्तामणि के रचयिता मेरुतुंगसूरि भी इसी गच्छ के थे। इस गच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेख भी बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। वि.सं. 1455 के एक धातुप्रतिमालेख के आधार पर श्री अगरचन्दनाहटा ने यह मत व्यक्त किया है कि उस समय तक यह गच्छ उपकेशगच्छ में विलीन हो चुका था। इस गच्छ का भी सम्यक अध्ययन होना अपरिहार्य है। नाणकीयगच्छ श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में नाणकीय गच्छ का प्रमुख स्थान है। इसके कई नाम मिलते हैं, जैसे -- नाणगच्छ, ज्ञानकीयगच्छ, नाणावालगच्छ आदि। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट होता है कि अर्बुदमण्डल में स्थित नाणा नामक स्थान से यह गच्छ अस्तित्त्व में आया। शांतिसूरि इस गच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। उनके पट्टपर क्रम से सिद्धसेनसूरि, धनेश्वरसूरि और महेन्द्रसूरि ये तीन आचार्य प्रतिष्ठित हुए। यही 4 नाम इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को पुनः-पुनः प्राप्त होते रहे। इस गच्छ के मुनिजनों की प्रेरणा से वि.सं. 1272 में बृहत्संग्रहणीपुस्तिका और वि.सं. 1592 में षट्कर्मअवचूरि की प्रतिलिपि करायी गयी। यह बात उनकी दाताप्रशस्ति से ज्ञात होती है। गच्छ से सम्बद्ध यही साहित्यिक साक्ष्य आज प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत इस गच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में जिनप्रतिमायें मिली हैं जो वि.सं. 1102 से वि.सं. 1599 तक की है। इससे प्रतीत होता है कि इस गच्छ के मुनिजन पठन-पाठन की ओर से प्रायः उदासीन रहते हुए जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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