Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 107
________________ अनेकान्त, अहिंसा तथा अपरिग्रह की अवधारणाओं का मूल्यांकन : आधुनिक विश्व समस्याओं के सन्दर्भ में दो विरोधी मतों -- बुद्धिवाद तथा अनुभववाद की आपसी कटुता को दूर करने के लिए ही उन्होंने अपना समीक्षावाद प्रस्तुत किया था, जिसमें बुद्धिवाद तथा अनुभववाद सहभागी के रूप में समन्वित होते हैं। जैनदर्शन मूलतः सापेक्षतावादी है। अनेकान्त, स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह सभी सापेक्षतावाद के ही विविध रूप हैं। यदि इन सिद्धान्तों से सापेक्षता हटा ली जाए तो ये अर्थहीन हो जाएंगे। मानवसमाज में सापेक्षता का बडा ही महत्त्व है। वक्ता बोलता है और श्रोता सुनता है। वक्ता श्रोता के बिना और श्रोता वक्ता के बिना कोई अर्थ नहीं रखता। वक्ता और श्रोता एक दूसरे के सापेक्ष हैं, पर यह सापेक्षता भगवान महावीर की चिन्तन प्रणाली में किस तरह प्रभावित एवं पुष्पित होती है उसे समझने के बाद ही हम निर्णय कर सकते हैं कि आधुनिक युग के लिए इनके पास कोई मूल्य है अथवा नहीं। सापेक्षता को तत्त्वमीमांसा में अनेकान्त की संज्ञा दी गई है। अनेक अपेक्षाओं, अनेक सीमाओं, अनेक दृष्टियों में विश्वास करने वाला सिद्धान्त अनेकान्तवाद के नाम से जाना जाता है। अनेकान्तवाद का अपना एक आधार है जो तत्त्व के विवेचन से निरूपित होता है। जैनमत में किसी भी वस्तु या तत्त्व के अनन्त धर्म होते हैं जिनमें कुछ विधि स्प तथा अन्य निषेध रूप। विधि और निषेध भी एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। विधि के बिना निषेध नहीं, निषेध के बिना विधि नहीं। विधि और निषेध धर्मों के आधार पर ही किसी वस्तु का सही बोध हो पाता है। किसी वस्तु के सभी धर्मों का बोध सामान्य व्यक्ति को नहीं होता। जो सर्वज्ञ या केवली होते हैं, वे ही किसी वस्तु को पूर्णतः जान पाते हैं। साधारण व्यक्ति किसी वस्तु के एक धर्म को या अनेक धर्मों को जान पाता है जो क्रमशः नय और प्रमाण की दृष्टियाँ मानी गई हैं। साधारण व्यक्ति का ज्ञान सीमित एवं सापेक्ष होता है। जैनाचार्यों ने सापेक्षता के सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए अन्धगजन्याय का उदाहरण दिया है। अन्धों ने हाथी का ज्ञान उसे स्पर्श करके प्राप्त किया। उन लोगों का ज्ञान सीमित था तथा अपनी-अपनी अपेक्षाओं से था, किन्तु उन लोगों ने अपने ज्ञान को पूर्ण और निरपेक्ष बताया। जब उन लोगों से हाथी के सम्बन्ध में पूछा गया तो किसी ने कहा हाथी रस्सी की तरह होता है, तो किसी ने कहा कि हाथी खम्भे की तरह होता है क्योंकि उन लोगों ने क्रमशः हाथी की दुम तथा उसके पैर स्पर्शित किए थे। आंशिक ज्ञान को पूर्ण तथा सापेक्ष ज्ञान को निरपेक्ष बताने की गलती अन्धों की तरह आँख वाले लोग भी करते हैं। एक व्यक्ति किसी वस्तु के सम्बन्ध में जितना जानता है उसी को पूरा ज्ञान मानकर दूसरे को गलत ठहराने की कोशिश करता है। वह ऐसा नहीं समझता है कि वस्तु के अनन्त धर्मों में से किन्हीं सौ, दो सौ, पाँच सौ या हजार धर्मों को वह जानता है तो अन्य सौ, दो सौ, पाँच सौ, हजार धर्मों को दूसरा व्यक्ति भी जान सकता है। जब कोई व्यक्ति अपने को सही और दूसरे को गलत बताता है तो यहीं विवाद शुरु होता है, जो आगे चलकर कलह एवं युद्ध का रूप धारण करता है। झगड़ा परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व किसी भी स्तर पर हो उसके पीछे वैचारिक मतैक्य का अभाव ही देखा जाता है। कहा जाता है कि जैसा विचार वैसा आचार। यदि विचार के विरोध नहीं हैं, तो आचार में भी विरोध सम्भव नहीं है। आदमी का यह स्वभाव तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु आदत जरूर कही जा सकती है कि वह दूसरे की सही बात को मानना नहीं चाहता है और अपनी गलत बात को भी तर्क या कुतर्क से सही प्रमाणित करना तथा दूसरे पर लादना चाहता है। अनेकान्तवाद हमें वैचारिक-सहिष्णुता का पाठ पढ़ाता है। परिवार में पिता-पुत्र, सास-बहू समाज में फैले हुए विभिन्न धर्म तथा विश्व में अनेक राष्ट्र एक-दूसरे के विचार से असहमत देखे जाते हैं। सर्वत्र पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक अशान्ति व्याप्त है। यदि हम अनेकान्तवाद के मार्ग पर चलते हैं, तो हमें यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होगी कि हमारे विचार के साथ ही हमारे मित्र, पड़ोसी, पड़ोसी-राष्ट्र, पड़ोसी-धर्म के भी विचार सही है या हो सकते हैं। ऐसा मान लेने पर आपसी सद्भाव जागत होता है और सुख-शान्ति की उपलब्धि होती है। अपनी आचार-मीमांसा में जैनदर्शन अहिंसावाद का प्रतिपादन करता है। अहिंसा शब्द निषधात्मक है, किन्तु प्रेम, सद्भाव, सहायता, दान आदि इसके विधेयात्मक रूप भी हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा का विस्तारपूर्वक 98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176