Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 119
________________ प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम 17 और लोभ कषाय के 14 नाम सम्मिलित हैं। समवायांग में विभिन्न जीवों की दृष्टि से अवान्तर कर्म प्रकृतियों की सत्ता का भी निर्देश 4 स्थलों पर आया है। 21वें समवाय में उल्लेख है कि दर्शनमोहत्रिक को क्षय करने वाले निवृत्तिबादर को मोहनीय कर्म की 21 अवान्तर प्रकृतियों की सत्ता रहती है।88 26वें समवाय में अभव्य सिद्धिक जीवों को मोहनीय कर्म के 26 कर्माश प्रकृतियों की सत्ता रहती है।89 27वें समवाय में वेदक सम्यक्त्व के बन्ध रहित जीव के मोहनीय कर्म की 27 प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। इसी प्रकार 28वें समवाय में यह उल्लिखित है कि कितनेक भव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता होती है। यद्यपि समवायांग में गुणस्थान पद नहीं आया है परन्तु चौदह जीवस्थान कहकर चौदह गुणस्थान गिना दिये गये है। कर्मों की विशुद्धि की गवेषणा करने वाले उपायों की अपेक्षा चौदह जीवस्थान कहे गये हैं। इस प्रकार समवायांग तक भले ही वर्तमान चौदह गुणस्थानों का अस्तित्व आ चुका था पर वे अभी जीवस्थान नाम से जाने जाते थे। विभिन्न आध्यात्मिक विकास वाले जीवों को बँधने वाली कर्म प्रकृतियों का भी उल्लेख समवायांग में मिलता है -- सूक्ष्म सम्पराय भाव में वर्तमान सूक्ष्म सम्पराय भगवान् केवल सत्रह कर्म प्रकृतियों को बाँधते हैं।93 परिणाम वाले अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय (द्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतरिन्द्रिय) जीव नाम कर्म की 25 उत्तर प्रकृतियों को बाँधते हैं।94 देवगति, नरकगति को बाँधने वाले जीव द्वारा 28 कर्म प्रकृतियों को बाँधने का भी निर्देश है। इसी क्रम में प्रशस्त अध्यवसाय से युक्त सम्यग्दृष्टि भव्य जीव द्वारा तीर्थंकर नाम कर्म के अतिरिक्त नाम कर्म की 28 कर्म प्रकृतियों को बांधकर नियमपूर्वक वैमानिक देवों में उत्पन्न होने का उल्लेख है। समवायांग में आठों मूल प्रकृतियों की अवान्तर प्रकृतियों में से कुछ को समविष्ट कर और कुछ को छोड़कर उनका योग बताया गया है। यद्यपि इसका कर्म-सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से विशेष महत्व नहीं है। इन पर दृष्टिपात करने से इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि नाम कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म-प्रकृतियों की संख्या नियत हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त मोहनीय कर्म के बन्ध और स्थिति से सम्बन्धित कुछ प्रकीर्ण सूचनायें मिलती है। समवायांग में मोहनीय कर्म-बन्ध के तीस कारण गिनाये है जिनका निर्देश उत्तराध्ययन99, आवश्यकसूत्र100 और दशाश्रुतस्कन्धा में भी मिलता है। छेदसूत्र दशाश्रुत के नवें अध्याय (दशा) में इनका विस्तार से उल्लेख है। समवायांग की प्रस्तावना में श्री मधुकर मुनि ने बताया है कि टीकाकारों के अनुसार मोहनीय शब्द से सामान्य रूप से आठों कर्म और विशेष रूप से मोहनीय कर्म ग्रहण करना चाहिए।102 तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्म के इंगित कारणों को सामान्य कर्म-बन्ध के कारणों के रूप में भी लिया जा सकता है। इस प्रकार हम देखते है कि समवायांग में अवान्तर प्रकृतियों की दृष्टि से नाम कर्म की 42 उत्तर प्रकृतियों का नाम सहित निर्देश होना, मोहनीय कर्म के 52 नाम, मोहनीय कर्म बन्ध के 30 कारण, जीवस्थानों (गुणस्थानों) की दृष्टि से जीवों को बँधने वाली कर्मप्रकृतियों की सूचना ये कुछ ऐसी विशेषतायें हैं जो कर्म-सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं और कर्म-सिद्धान्त के विकासक्रम को द्योतित करती हैं। 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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