Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 60
________________ डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय वन्दना -- तृतीय अध्ययन का नाम वन्दना है। इस अध्ययन की नियुक्ति करते हुये सर्वप्रथम आचार्य ने वन्दना के वन्दनाकर्म, चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म इन पाँच पर्यायों का उल्लेख किया है। इस अध्ययन में वन्दना का नौ द्वारों से विचार किया गया है -- 1. वन्दना किसे करनी चाहिए? 2. किसके बरा होनी चाहिए ? 3. कब होनी चाहिए ? 4. कितनी बार होना चाहिए ? 5. वन्दना करते समय कितनी बार झुकना चाहिए? 6. कितनी बार सिर झुकाना चाहिए ? 7. कितने आवश्यकों से शुद्ध होना चाहिए ? 8. कितने दोषों से मुक्त होना चाहिए ? एवं 9. वन्दना किसलिये करनी चाहिए ?22 इन बरों का निर्देश करने के बाद वन्द्यावन्द्य का भी सविस्तार विवेचन किया गया है। जो द्रव्य व भाव से सुश्रमण है वही वन्द्य है।23 इस क्रम में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विभिन्न अंगों का विचार करने के बाद आचार्य इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय आदि में हमेशा लगे रहते हैं, वही वन्दनीय है और उन्हीं से जिनप्रवचन का यश फैलता है।24 वन्दना करने वाला पंचमहाव्रती, आलस्यरहित, मानपरिवर्जितमति, संविग्न और निर्जरार्थी होता है। वन्दना के मूलपाठ "इच्छामिखमासमणो" की सूत्रस्पर्शी व्याख्या करते हुये नियुक्तिकार ने (1) इच्छा, (2) अनुज्ञापना, (3) अव्याबाध, (4) यात्रा, (5) यापना और (6) अपराधक्षमणा इन छ: स्थानों की नियुक्ति निक्षेपों के आधार पर करके वंदनाध्ययन की नियुक्ति को यहीं विश्राम दे दिया है। प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण नामक यह चतुर्थ अध्ययन है। प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुये आचार्य ने स्पष्ट किया है कि-- प्रमाद के कारण आत्मभाव से जो आत्मा मिथ्यात्व आदि पर-स्थान में चला जाता है, उसका पुनः अपने स्थान में आना प्रतिक्रमण है।27 प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, शुद्धि-8-- ये प्रतिक्रमण के पर्याय है। प्रतिक्रमण पर तीन दृष्टियों से विचार किया गया है-- (1) प्रतिक्रमणस्प क्रिया, (2) प्रतिक्रमण का कर्ता अर्थात् प्रतिक्रामक और (3) प्रतिकमितव्य अशुभयोग स्प कर्म । जीव पापकर्मयोगों का प्रतिक्रामक है। इसलिये जो ध्यान आदि प्रशस्त योग है, उनका साधु को प्रतिक्रमण नहीं करना चाहिए। प्रतिक्रमण, दैवसिक, रात्रिक, इत्वरिक, यावत्कथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमार्थक आदि अनेक प्रकार का होता है। पंचमहाव्रत, रात्रिभक्तिविरति, भक्तपरिज्ञा आदि ऐसे प्रतिक्रमण हैं, जो यावत्काथिक या जीवन भर के लिये हैं। सामान्यतः उच्चार-मूत्र, कफ, नसिकामल, आभोग, अनाभोग, सहसाकार आदि कियाओं के उपरान्त प्रतिक्रमण आवश्यक है।29 इसके अतिरिक्त इस अध्ययन में आचार्य ने प्रतिषिद्ध विषयों का आचरण करने, विहित विषयों का आचरण न करने, जिनोक्त वचनों में श्रद्धा न रखने तथा विपरीत प्ररूपणा करने पर प्रतिक्रमण करने का निर्देश30 देते हुए आलोचना निरपलाप आदि बत्तीस योगों की चर्चा की है। तदनन्तर अस्वाध्यायिक की नियुक्ति, अस्वाध्याय के भेद-प्रभेद एवं तज्जनित परिणामों की चर्चा की गई है। कायोत्सर्ग -- यह आवश्यकसूत्र का पाँचवाँ अध्ययन है। कायोत्सर्ग की नियुक्ति करने के पूर्व आचार्य ने प्रायश्चित्त के आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक इन दस भेदों का निरूपण किया है। कायोत्सर्ग एवं व्युत्सर्ग एकार्थक हैं। यहाँ कायोत्सर्ग का अर्थ व्रणचिकित्सा है जो कायोत्थ और परोत्थ दो प्रकार की होती है। जैसा व्रण होता है, वैसी ही उसकी चिकित्सा होती है। कायोत्सर्ग में दो पद हैं -- काय और उत्सर्ग। काय का निक्षेप बारह प्रकार से किया गया है। ये हैं -- (1) नाम, (2) स्थापना, (3) शरीर, (4) गति, (5) निकाय, (6) आस्तिकाय, (7) द्रव्य, (8) मातृका, (9) संग्रह, (10) पर्याय, (11) भार एवं (12) भाव। उत्सर्ग का निक्षेप-- (1) नाम, (2) स्थापना, (3) द्रव्य, (4) क्षेत्र, (5) काल और (6) भाव रूप से छः प्रकार का है। कायोत्सर्ग के चेष्टाकायोत्सर्ग एवं अभिभवकायोत्सर्ग नामक दो विधान है। भिक्षाचर्या आदि में होने वाला चेष्टाकायोत्सर्ग एवं उपसर्ग आदि में होने वाला अभिभवकायोत्सर्ग 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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