Book Title: Shrutsagar Ank 1999 09 009
Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 2
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर, श्रावण २०५५ पुण्य के पोषण और पाप के शोषण का पर्व कहा जाता है. यह दूसरी बात है कि आज पर्युषण पर्व के साथ कई ऐसी गतिविधियां जुड़ गई हैं, जिनका न तो कोई प्राचीन इतिहास है और न ही आध्यात्मिक अवदान. स्पष्ट है कि इस पर्व को पाकर भी यदि भौतिक गतिविधियों में संलग्नता और रूचि रहती है तो मानों कि हम चिन्तामणि रत्न को सामान्य पाषाण समझकर कौड़ियों के मोल बेच रहे हैं. निर्विवाद रूप से मनुष्य के मन की यह दुष्टता है कि वह किसी भी प्रक्रिया में अपना प्रभाव छोड़े बगैर नहीं रहता. पर्युषण जैसे विशुद्ध आध्यात्मिक पर्व के साथ भी धन-प्रधानता, रस-लोलुपता, नामेषणा, देह-शृंगार, भेंट-सौगात, अनावश्यक आडम्बरों के द्वारा शक्ति प्रदर्शन, जड़ता पूर्वक तपाराधना इत्यादि कई विकृतियां जुड़ गई हैं. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पर्युषण की मूल अवधारणा के साथ इन बाबतों का कोई सरोकार नहीं है. आवश्यक है कि अब पर्युषण के दौरान इन विकृतियों पर गहन आत्म-चिन्तन हो. अहिंसा और क्षमापना : क्षमा की भावना पर्युषण पर्व का प्रासाद है और अहिंसा उसकी बुनियाद. बगैर बुनियाद के प्रासाद खड़ा नहीं होता और बिना अहिंसा के क्षमा की भावना पनप नहीं सकती. यूं तो जीवन में प्रतिपल हिंसा की संभावना रहती है, परन्तु वर्षाकाल में वह सर्वाधिक बन जाती है. जैन विचारधारा के अनुसार पानी एकेन्द्रिय जीवों का समूह है. फिर वर्षाकाल में नाना प्रकार के जीव-जन्तु व कीटाणु भी उत्पन्न होते हैं. इन सब की हिंसा से बचने के लिए वर्षाकाल में भौतिक गतिविधियों को कम-से-कम करते हुए अध्यात्म की ओर अधिकाधिक अभिमुख होने का जैन दर्शन का निर्देश है. यह स्पष्ट है कि गृहस्थ के लिए जीवनपर्यन्त सूक्ष्म हिंसा से निवृत्त होकर जीवनयापन करना दुष्कर ही नहीं, असंभव-सा है. किन्तु वर्षाकाल में अपने आत्महित को देखते हुए हिंसा को कम-से-कम करना मुश्किल तो नहीं है. फिर भी यदि हिंसा के निमित्त मिलते रहते हों तो पर्युषण पर्व की संयोजना हिंसा से पूरी तरह सावधानी बरतने व निष्ठापूर्वक अहिंसा के लिए संकल्पित होकर आत्म-साधना करने का मंगल अवसर है, जो हर नए वर्ष के आगमन में परिणीत होता है. श्रमण भगवान महावीर ने एक गहरे अर्थ में अहिंसा को प्राणों की संज्ञा दी है. महावीर के अनुसार अहिंसा के अभाव में पर्युषण पर्व ही व्यर्थ नहीं होता, जीवन भी निरर्थक है. ___आज पर्युषण को क्षमापना का पर्व कहा जाता है, जबकि ज्यादा उचित यह है कि क्षमापना पर्व से पहले इसे अहिंसा का पर्व कहा जाय. यह गणित के सरल फार्मुले जैसी बात है कि अहिंसा के बिना क्षमापना अकल्पनीय है. केवल अहिंसक ही क्षमावान् हो सकता है. जो हिंसा में संलग्न हो, उसका क्षमापना से क्या वास्ता? और यदि अहिंसा जीवन में व्याप्त बन गई हो तो फिर क्षमापना तो स्वतः ही निष्पन्न हो जायेगी. अहिंसक होने का यह मतलब तो हो ही जाता है कि मेरा कोई वैरी नहीं है और मुझे किसी से वैर नहीं है. लोग अहिंसा को धर्म से जोड़ते हैं, जब कि वास्तविकता यह है कि वह मनुष्य के जीवन-व्यवहार और मानवता से जुड़ा अनिवार्य मुद्दा है. उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर अहिंसा को पूरी तरह व्यावहारिक बनाने के लिए पर्युषण पर्व में व्यवसाय, लेन-देन, भवन निर्माण, रंग-रोगान, दलन-पिसन, आवागमन, नवीन परिधान, श्रृंगार, व्यर्थ वार्तालाप, विवाह, भोजन समारंभ, पर्यटन, मनोरंजन, हरी वनस्पति का उपयोग इत्यादि हिंसायुक्त या हिंसा की संभावित सभी प्रवृत्तियों को वर्जित माना गया है. यह सब बाह्य प्रबंध है. मन अशुभ प्रवृत्तियों से हटकर शुभ प्रवृत्तियों में लीन बने और बीते वर्ष में किये गये पापों का पश्चात्ताप व प्रायश्चित्त किया जा सके इस आशय से अनेक आन्तरिक प्रबंध भी करने होते हैं. तप, जप, ध्यान, स्वाध्याय, संकल्प, पूजा-अर्चना, सामायिक, प्रतिक्रमण इत्यादि धार्मिक गतिविधियों के पीछे आंतरिक प्रबंध ही हेतु है किन्तु इनमें द्रव्य की नहीं बल्किं भावशुद्धि की प्रधानता होनी चाहिए. For Private and Personal Use Only

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