Book Title: Shrutsagar Ank 1999 09 009
Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 12
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर, श्रावण २०५५ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ पर्युषण पर्व के कर्तव्य : एक परिशीलन जैनशासन में अनेकों पर्व विद्यमान हैं. पर्व का सीधा अर्थ है उत्सव. पर्युषण का सरल अर्थ है आत्मा के आसपास रहना अर्थात् आत्मशुद्धि का उत्सव = पर्व पर्युषण. इन पर्व के दिनों में हमे आत्म विशुद्धि की आराधना करने का अवसर प्राप्त होता है. सभी पर्वो में पर्युषण पर्व को पर्वाधिराज की उपमा दी गई है। क्योंकि इस पर्व में कर्मों के भेदन की जो प्रक्रिया है और जो ताकत है वह अन्य पर्वो में नहीं है. इस बात से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैन शासन में पर्व रुप उत्सव मनाने का विधान कर्मो को छोड़ने के आशय से जुड़ा है. प्रत्येक जैन को कर्म के मर्म को नष्ट करने के लिये ही पर्वाराधना करनी चाहिये. पर्व पर्युषण के उत्सव में यह तत्त्व मुख्य रूप से जुड़ा है. परमात्मा श्री महावीरदेव के शासन मे अनेकों पर्व होते हुए भी हम सभी पर्वो की आराधना न कर सके तो भी इस महान पर्व की आराधना अवश्य करनीचाहिये. इसलिये तो बारह महिनों में अनेक पर्व आते हैं. लेकिन जो उत्साह, उमंग पर्व पर्युषण में देखा जाता वह अन्य पर्वों में नहीं देखा जाता. पर्युषण की आराधना में जो विशेषता है उसे समझ लिया जाय तो आराधना समुचित व लाभकारी होगी. परमात्मा श्री महावीरदेव ने पर्युषण पर्व में करने योग्य पांच कर्तव्य बताये हैं. इन पांचों कर्तव्यों के नाम हैं- १. अमारि प्रवर्तन २ साधर्मिकवात्सल्य ३. परस्पर क्षमापना ४. अट्ठमतप और ५. चैत्यपरिपाटी. इनके साथ-साथ वर्षभर में करने योग्य ग्यारह कर्तव्य भी जुड़ते हैं. इन कर्तव्यों के नाम हैं क्रमश:- संघपूजा, साधर्मिकभक्ति, यात्रा - त्रिक, स्नात्रमहोत्सव, देवद्रव्यवृद्धि, महापूजा, रात्रि जागरण, श्रुतभक्ति, उद्यापन, तीर्थप्रभावना और आलोचना. सभी पर्वों में उत्तम पर्व पर्युषण ही है. उसमें भी सांवत्सरिक प्रतिक्रमण मुख्य अंग है. परस्पर 'मिच्छामि दुक्कडम्' द्वारा आत्मशुद्धि करके मैत्र्यादि भावना के विस्तरण पूर्वक 'सवी जीव करु शासन रसी' इसी कक्षा तक पहुंचना ही पर्युषण पर्व की सार्थकता है. अमारि का तात्पर्य है अहिंसा का प्रवर्तन करना. स्वयं अहिंसक बनना और आसपास भी अहिंसा का वातावरण हो ऐसा प्रबंध करना. आत्मशुद्धि की बात हो या कोई भी धार्मिक अनुष्ठान हो हिंसा के माहौल में वह परिपूर्ण नहीं हो सकता. अभय के नजदीक ही अध्यात्म में सहायक प्रकृति की शक्ति का सहयोग रहता है. अतः पर्युषण के दौरान यथाशक्य अहिंसक माहौल पैदा करने का विधान सर्व प्रथम किया है. दूसरा कर्तव्य साधर्मिक वात्सल्य है. जो धर्म करने की इच्छा वाला है उसे धर्म जिसमें रहता है उस धर्मीजन को बिना अपनाये धर्म सार्थक नहीं हो सकता. समान धर्मी को साधर्मिक कहते हैं. जिसके हृदय में धर्म विद्यमान है. उसे साधर्मिक भाई-बहन तो जगत के सभी संबंधों से अधिक संबंधी लगते है. शास्त्रों में भी कहा है कि संसार के संबंध अनेक किये लेकिन सच्चा संबंध तो साधर्मिकों का है. जो अन्य संबंधों से महा दुर्लभ माना जाता है. जिसके संबंध से अपनी आत्मा को महान लाभ होता हो वही संबंध सच्चा है. साधर्मिक के साथ नाता जोड़ने से धर्म के साथ नाता जुड़ता है अतः साधर्मी की भक्ति सह बहुमान करने से पर्युषण पर्व की आराधना पुष्ट होती है. For Private and Personal Use Only तीसरा कर्तव्य है परस्पर क्षमापना करना. यूं कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा कि बिना क्षमापना के यह पर्वाधिराज की आराधना खोखली है. खमा लेना और क्षमा देना दोनों परस्पर एक सिक्के के दो पहलु हैं. अपने आन्तरशत्रुओं से छुटकारा पाने के लिये प्रथम हथियार है क्षमा. इसको अपनाये वगैर अन्य आराधनायें साफ तौर पर कुछ विशेष लाभ नहीं पहुंचा सकती. चौथा कर्तव्य है- अट्ठमतप.. यह तप महान् लाभ कर्ता है. तप से कठिनतम कर्म भी छूट जाते हैं. तपसा निर्जरा च तपसा किं न सिद्यति ? इस उक्त्यनुसार तप से आत्मा उपर वह प्रक्रिया होती है जो मिट्टी में मिले हुए सुवर्ण उपर अग्नि की भट्ठी में होती है. वर्ष भर में हमसे जो भूलें होती रहती है उसका यह दण्ड याने प्रायश्चित है. अट्ठमतप न होने की स्थिति में अन्य उपाय से भी इस तप की पूर्ति व लाभ प्राप्त होता है. एतदर्थ छह आयंबिल, छूटक एक-एक करके तीन उपवास,

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