Book Title: Shrutsagar Ank 1999 09 009
Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ श्रुतसागर, श्रावण २०५५ नौ निवी, बारह एकासन, चौवीस बियासने अथवा सर्वथा तप के न होने पर छह हजार श्लोक प्रमाण शास्त्राध्ययन. इनमें से कोई एक विकल्प से अट्टम तप की पूर्ति की जा सकती है. पांचवां कर्तव्य है चैत्यपरिपाटी चैत्य का अर्थ है जिनमंदिर. परिपाटी का अर्थ है दर्शन पूजा के लिये क्रम. अर्थात् जिनशासन की प्रभावना हो एवं अपने मोभे के अनुरूप ठाटबाठ से चतुर्विध संघ सहित बैण्डबाजों के साथ जिन मंदिरों की पूजा अर्चना करने सामुहिक रुप से निकलना अपने उपकारियों के प्रति विनय, भक्ति का भाव व्यक्त करने के लिये इस कर्तव्यता का उपदेश है. इन पांचों कर्तव्यों के पालन से पर्व पर्युषण की आराधना लाभदायी होती है. जिनशासन की प्रभावना होती है. सच्चे जैनत्व की पहचान होती है. इन कर्तव्यों को अदा करने में अपनी शक्ति को छिपाना मतलब अपनी आत्मा के साथ धोखाधड़ी करना है. पर्व पर्युषण निमित्त पांच कर्तव्यों के साथ-साथ वर्षभर में परमात्मा की आज्ञा का पालन होता रहे इसलिये वार्षिक ग्यारह कर्तव्य भी करणीय है. इससे पर्युषण पर्व की प्रेरणा वर्षभर जीवंत रहती है अतः वर्ष में कम से कम एक बार संघपूजा करनी चाहिये. साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ की यथा शक्ति वस्त्र-पात्रादि से सत्कार - सन्मान व बहुमान करने को संघ पूजा कहा जाता है. जिनेश्वरों की आज्ञा को शिरोधार्य करने वाला यह संघ पच्चीसवें तीर्थंकर की उपमा को प्राप्त हुआ है. अतः संघपूजा का महत्व और भी ज्यादा अंकित हुआ है. साधर्मिकभक्ति पांच कर्तव्यों में आ जाने पर भी समय-समय पर सधर्मी की भक्ति करने को कहा गया है. यात्रा - त्रिक, याने वर्ष में एक बार जिन मंदिर में अष्टानिका महोत्सव करना अथवा संघ में प्रभु भक्ति का उत्सव होने पर यथाशक्ति लाभ लेना. जिनशासन की प्रभावना हो ऐसे रथयात्रा का आयोजन करना तथा शत्रुंजय आदि तीर्थों की यात्रा करनी अथवा करवानी इसे यात्रा - त्रिक कहते हैं. चौथा- स्नात्रमहोत्सव करना योग होने पर अनेकों आत्माओं को भक्ति का लाभ मिले ऐसी सामुहिक स्नात्रपूजा पढ़ाना. पांचवां देवद्रव्य की वृद्धि करना. संघ मे इन्द्रमाळा पहनना, पर्युषण में प्रत्येक प्रसंगों की बोलियां बुलवाकर देवद्रव्य की वृद्धि करना आदि. इससे प्राचीन अर्वाचीन जिनालयों की देखभाल करने में सुविधा होती है तथा मंदिरों के लिये द्रव्य सुरक्षित रहता है. आज शत्रुंजय, आबु, राणकपुर, समेतशिखरजी पावापुरीजी आदि तीर्थों का विद्यमान होना तथा कला स्थापत्य का सुरक्षित रहना इस देवद्रव्य के बदौलत ही संभव हुआ है. छट्ठा महापूजा रचाना याने जिनमंदिर में जिनमूर्तियों की सुंदर अंगरचना कराना. प्रभुदर्शन करनेवाले का भाव और ज्यादा: बढ़े इसलिये इस कर्तव्य का विधान है. सातवां रात्रि जागरण करना. जिनशासन की मर्यादाओं का ख्याल रखते हुए परमात्मा के गुणों का कीर्तन करने पूर्वक सारी रात जागना. इस कर्तव्यता से परमात्मा के पंच कल्याणकों की आराधना का उपदेश है. आठवां श्रुत ज्ञान की भक्ति श्रुत याने आगम साहित्य. भगवानने जो तत्त्वज्ञान कहा उसे गणधर भगवंतोंने सूत्रबद्ध किया है. उन सूत्रों को संकलित कर व्यवस्थित किया गया है जिसे श्रुतज्ञान अथवा आगमशास्त्र कहा जाता है. इस कलिकाल में आगम ही शास्त्रचक्षु है. जिनमूर्ति और जिनागम से परमात्मा का शासन प्रवर्तमान है. इसलिये श्रुतज्ञान की भक्ति, उपासना करना उसे लिखवाना, संरक्षित करना, ज्ञानपंचमी तप आराधना करना, ज्ञानदान करना आदि श्रुतज्ञान की भक्ति का कर्तव्य अदा करना है. नौवा कर्तव्य उद्यापन. उद्यापन का सामान्य अर्थ है उत्सव. जिन शासन में तो कहा गया है कि छोटे-बड़े तप करके उसकी अनुमोदना के लिये उद्यापन करना चाहिये. उद्यापन में ज्ञान दर्शन चारित्र की सामग्री चयन कर दर्शनार्थ रखी जाती है. महोत्सव के समापन के समय चतुर्विध संघ को वह सामग्री समर्पित की जाती है. इसे वार्षिक कर्तव्य के रुप में एक बार अवश्य करना चाहिए. दसवां कर्तव्य है- तीर्थ. प्रभावना. जैनशासन की जय जय कार हो, प्रभावना हो, एतदर्थ देव गुरु धर्म की प्रभावना के प्रसंग वर्ष में एक बार आयोजित करना चाहिये. [शेष पृष्ठ ९ पर For Private and Personal Use Only

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