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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र का मुखपत्र
श्रुत सागर
आशीर्वाद : राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. अंक : ९ श्रावण वि. सं. २०५५ सप्टेम्बर १९९९ : संपादक :
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मनोज जैन
पर्युषण पर्व की सार्थकता
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अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति
मुनि श्री विमलसागर
'कल्पसूत्र' जैन परंपरा का सर्वाधिक प्रसारित धर्मग्रन्थ है. पर्युषण पर्व की बुनियाद भी यही ग्रन्थ है. अंग्रेजों के शासन काल में इसी को जैनधर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में अदालत में शपथ के लिए मान्य
पुण्य का पोषण पाप का शोषण :
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किया गया था. मूलतः अर्द्धमागधी नामक प्राकृत की एक अवान्तर भाषा में निबद्ध यह ग्रन्थ भगवान महावीर की परंपरा के छठे आचार्य आर्य भद्रबाहु का संकलन है. अर्द्धमागधी भाषा में इस ग्रन्थ का नाम पज्जोवसणा कप्पो है. पर्युषण शब्द इसी पज्जोवसणा शब्द का भाषान्तरण है. इसके दो अर्थ होते हैं. पहला- एक स्थान पर रहकर वर्षाकाल व्यतीत करना. यह अर्थ साधु-साध्वियों को दृष्टिगत रखकर प्रयुक्त हुआ है. दूसरा अर्थ है- भाद्रपद माह के आठ दिनों का प्रसिद्ध पर्व.
डॉ. बालाजी गणोरकर
• भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों स्तरों पर पर्युषण शब्द का लाक्षणिक अर्थ होता हैः समीप में निवास करना, चारों ओर से सीमित होकर निकट में बसना संस्कृत में 'परि' उपसर्ग पूर्वक वस् धातु में ल्युट् (अन्) प्रत्यय लगकर पर्युषण शब्द की व्युत्पत्ति हुई है. जहां तक पज्जोवसणा शब्द से भाद्रपद माह के आठ दिनों के प्रसिद्ध पर्व पर्युषण का संबंध है, यह जैन परंपरा का सबसे बड़ा और लोकप्रिय आध्यात्मिक पर्व है. दृश्यमान जगत् से इसका विशेष संबंध नहीं है. पर्युषण की सारी महत्ता मनुष्य के अन्तर्जगत से है.
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क्रोध, अभिमान, कपट, लोभ, राग, द्वेष, ईर्ष्या इत्यादि घातक वृत्तियों का निर्मूलन करते हुए आत्मिक साधना की ओर अग्रसर होना ही पर्युषण की सार्थकता है. मनुष्य के पास गहरी सूझबूझ, अपार सामर्थ्य और अखूट शक्ति है, तथापि जीवन अपराधों से भरा पड़ा है. पग-पग पर पापकृत्य हो जाते हैं. कहीं मन द्वेषवश दुर्भावनाओं से भर जाता है तो कहीं ईर्ष्या की आग में जलने लगता है. कहीं अहं की तो कहीं कपट की चपेट में आकर हम पराजित हो जाते हैं. लोभ ने तो समग्र मनुष्य जाति को बुरी तरह जकड़ रखा है. इधर झूठे प्रेम और विषय-वासनाओं के जाल में उलझकर हम दुःखी हो रहे हैं. पापकृत्यों और अपराधों की इन बेड़ियों से मुक्त होने के लिए निमित्त और अवसर बहुत प्रभावी सिद्ध होते हैं. पर्युषण पर्व एक ऐसा ही आध्यात्मिक अवसर है जिसका पावन सान्निध्य हमें अपने मन की स्लेट को एक बार फिर कोरी कर लेने और विभिन्न धार्मिक-आध्यात्मिक क्रिया-कलापों के द्वारा जीवन-पथ को बुहार कर साफ-सुथरा बनाने का नया संदेश देता है. पर्युषण पर्व की समस्त गतिविधियों के मूल में पाप प्रक्षालन का ही भाव है. इसीलिए इसे
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५ पुण्य के पोषण और पाप के शोषण का पर्व कहा जाता है. यह दूसरी बात है कि आज पर्युषण पर्व के साथ कई ऐसी गतिविधियां जुड़ गई हैं, जिनका न तो कोई प्राचीन इतिहास है और न ही आध्यात्मिक अवदान. स्पष्ट है कि इस पर्व को पाकर भी यदि भौतिक गतिविधियों में संलग्नता और रूचि रहती है तो मानों कि हम चिन्तामणि रत्न को सामान्य पाषाण समझकर कौड़ियों के मोल बेच रहे हैं. निर्विवाद रूप से मनुष्य के मन की यह दुष्टता है कि वह किसी भी प्रक्रिया में अपना प्रभाव छोड़े बगैर नहीं रहता. पर्युषण जैसे विशुद्ध आध्यात्मिक पर्व के साथ भी धन-प्रधानता, रस-लोलुपता, नामेषणा, देह-शृंगार, भेंट-सौगात, अनावश्यक आडम्बरों के द्वारा शक्ति प्रदर्शन, जड़ता पूर्वक तपाराधना इत्यादि कई विकृतियां जुड़ गई हैं. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में पर्युषण की मूल अवधारणा के साथ इन बाबतों का कोई सरोकार नहीं है. आवश्यक है कि अब पर्युषण के दौरान इन विकृतियों पर गहन आत्म-चिन्तन हो.
अहिंसा और क्षमापना :
क्षमा की भावना पर्युषण पर्व का प्रासाद है और अहिंसा उसकी बुनियाद. बगैर बुनियाद के प्रासाद खड़ा नहीं होता और बिना अहिंसा के क्षमा की भावना पनप नहीं सकती. यूं तो जीवन में प्रतिपल हिंसा की संभावना रहती है, परन्तु वर्षाकाल में वह सर्वाधिक बन जाती है. जैन विचारधारा के अनुसार पानी एकेन्द्रिय जीवों का समूह है. फिर वर्षाकाल में नाना प्रकार के जीव-जन्तु व कीटाणु भी उत्पन्न होते हैं. इन सब की हिंसा से बचने के लिए वर्षाकाल में भौतिक गतिविधियों को कम-से-कम करते हुए अध्यात्म की ओर अधिकाधिक अभिमुख होने का जैन दर्शन का निर्देश है.
यह स्पष्ट है कि गृहस्थ के लिए जीवनपर्यन्त सूक्ष्म हिंसा से निवृत्त होकर जीवनयापन करना दुष्कर ही नहीं, असंभव-सा है. किन्तु वर्षाकाल में अपने आत्महित को देखते हुए हिंसा को कम-से-कम करना मुश्किल तो नहीं है. फिर भी यदि हिंसा के निमित्त मिलते रहते हों तो पर्युषण पर्व की संयोजना हिंसा से पूरी तरह सावधानी बरतने व निष्ठापूर्वक अहिंसा के लिए संकल्पित होकर आत्म-साधना करने का मंगल अवसर है, जो हर नए वर्ष के आगमन में परिणीत होता है. श्रमण भगवान महावीर ने एक गहरे अर्थ में अहिंसा को प्राणों की संज्ञा दी है. महावीर के अनुसार अहिंसा के अभाव में पर्युषण पर्व ही व्यर्थ नहीं होता, जीवन भी निरर्थक है. ___आज पर्युषण को क्षमापना का पर्व कहा जाता है, जबकि ज्यादा उचित यह है कि क्षमापना पर्व से पहले इसे अहिंसा का पर्व कहा जाय. यह गणित के सरल फार्मुले जैसी बात है कि अहिंसा के बिना क्षमापना अकल्पनीय है. केवल अहिंसक ही क्षमावान् हो सकता है. जो हिंसा में संलग्न हो, उसका क्षमापना से क्या वास्ता? और यदि अहिंसा जीवन में व्याप्त बन गई हो तो फिर क्षमापना तो स्वतः ही निष्पन्न हो जायेगी. अहिंसक होने का यह मतलब तो हो ही जाता है कि मेरा कोई वैरी नहीं है और मुझे किसी से वैर नहीं है. लोग अहिंसा को धर्म से जोड़ते हैं, जब कि वास्तविकता यह है कि वह मनुष्य के जीवन-व्यवहार और मानवता से जुड़ा अनिवार्य मुद्दा है. उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर अहिंसा को पूरी तरह व्यावहारिक बनाने के लिए पर्युषण पर्व में व्यवसाय, लेन-देन, भवन निर्माण, रंग-रोगान, दलन-पिसन, आवागमन, नवीन परिधान, श्रृंगार, व्यर्थ वार्तालाप, विवाह, भोजन समारंभ, पर्यटन, मनोरंजन, हरी वनस्पति का उपयोग इत्यादि हिंसायुक्त या हिंसा की संभावित सभी प्रवृत्तियों को वर्जित माना गया है. यह सब बाह्य प्रबंध है. मन अशुभ प्रवृत्तियों से हटकर शुभ प्रवृत्तियों में लीन बने और बीते वर्ष में किये गये पापों का पश्चात्ताप व प्रायश्चित्त किया जा सके इस आशय से अनेक आन्तरिक प्रबंध भी करने होते हैं. तप, जप, ध्यान, स्वाध्याय, संकल्प, पूजा-अर्चना, सामायिक, प्रतिक्रमण इत्यादि धार्मिक गतिविधियों के पीछे आंतरिक प्रबंध ही हेतु है किन्तु इनमें द्रव्य की नहीं बल्किं भावशुद्धि की प्रधानता होनी चाहिए.
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५
पर्युषण : एक सम्पूर्ण क्रान्ति
हिंसा का सम्बन्ध किसी को मारने से नहीं, वरन् हमारे विचारों से है बाह्य जगत् में परिलक्षित होती हिंसा तो आदमी के अन्तर्जगत् में उत्पन्न होते और घूमते विचारों की अभिव्यक्ति मात्र है. प्रलय-सृष्टि, विकास- ह्रास, सुख-दुःख, अपना-पराया सब अपने भीतर होते हैं. दृश्यजगत् में आकार लेती घटनाएं तो केवल उनकी भौतिक निष्पत्तियां ही हैं, जो कि स्थूल परिणामों के अतिरिक्त अधिक कुछ नहीं है. अन्तर्जगत् का परिवर्तन ही वास्तविक क्रान्ति है. भौतिक कलेवर तो अन्तर्मन के बदलते ही अपने आप बदल जाएगा. इसीलिए अहिंसा पारम्परिक नहीं, मौलिक होनी चाहिए.'
जीवन की महत्ता आन्तरिक संयम और अनुशासन से है. इन अर्थों में पर्युषण का आगमन अपने आप में एक विराट् घटना है- इतनी महान घटना कि इतिहास की कोई भी घटना इसके सामने गौण प्रतीत होती है. अन्य सभी तथाकथित रिश्तों/सहारों / सम्बंधों / आधारों से टूटकर आदमी का अपने समीप आना, समग्र अस्तित्व और प्रकृति के समीप आना तथा इस परम समीपता में सतत निवास करना पर्युषण पर्व की उपादेयता है. अहिंसा इस पर्व का भावना - पक्ष है और संयम इसका क्रियापक्ष, किन्तु अपने आप में यह निष्पक्ष है.
आज विश्व, देश और समाज- सभी हिंसा से पराजित है. निरन्तर बढ़ती हिंसा ने जन-जीवन को संत्रस्त कर रखा है. हिंसा की व्यापकता ने मानव के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है. ऐसे में सरकारें अस्थिर हो रही हैं. अस्पष्ट जनादेश मिल रहे हैं. तानाशाही के आधार पर राष्ट्र या राज्य को हड़पने की घटनाएं बन रही हैं. माना कि हिंसा रोकने के लिए नये कानून बनाए जा सकते हैं, पुराने कानूनों में परिवर्तन किया जा सकता है, उनको तोड़ने वाले के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था निर्धारित की जा सकती है, पुलिस या सेना को तैनात किया जा सकता है, आम आदमी को आत्म-सुरक्षा के साधन मुहैया कराए जा सकते हैं, किन्तु इससे ज्यादा कोई भी सरकार कुछ नहीं कर सकती.
वस्तुतः ये सभी उपाय शासन के प्रतिफल हैं. जब आत्म-अनुशासन टूटता है, तब शासन का उदय होता है. आत्म-अनुशासन का टूटना परतंत्र और पराजित होने की ही प्रक्रिया है. शासन परतंत्रता का ही एक रूप है. सम्पूर्ण स्वतंत्रता तो अनुशासित और संयमी जीवन में निहित है. जब तक आदमी का भीतरी मन अहिंसक नहीं बन जाता, बाहरी हिंसा जारी ही रहेगी. हम बाह्य परिवेश को तो बदल रहे हैं, पर आन्तरिक व्यवस्था को परिवर्तित करने का आंशिक प्रयत्न भी नहीं हो रहा. गौरतलब है कि समस्त व्यवस्थाओं, कानूनों, नीति-नियमों के पीछे आदमी खड़ा है और वह अपनी अज्ञानतावश भ्रान्तधारणाओं में उलझ रहा है, अपने प्रमाद से ग्रस्त है, पूर्वाग्रहों को लेकर चल रहा है, स्वार्थ ने उसे जकड़ लिया है. जब तक वह भीतर से नहीं बदल जाता, व्यवस्थाओं का पालन न तो वह स्वयं कर पाएगा और न ही दूसरों से करवा पाएगा. सारी समस्याएं अन्तर्मन की हैं, अतः क्रान्ति का उद्भव अन्तर में होना परम आवश्यक है. हृदय परिवर्तन ही हमारी समस्त समस्याओं के स्थायी समाधान का मार्ग प्रशस्त कर सकता है. हम समाज- क्रान्ति और राष्ट्र - क्रान्ति की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, किन्तु स्वयं आदमी को, जो कि समाज और राष्ट्र के अस्तित्व का अभिन्न और अपरिहार्य अंग है, अगर क्रान्त न कर पाए तो अन्य सब कुछ कर देने पर भी क्या फर्क पड़ेगा ?
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पर्युषण पर्व एक ऐसी विराट् मानसिक क्रान्ति का द्योतक है, जिसके समक्ष इतिहास के युगान्तकारी परिवर्तन भी बालकों के खेल जैसे मालूम पड़ेंगे. आज जरूरत है उसकी अन्तश्चेतना को पकड़कर अपने जीवन में साकार करने की. हकीकत में तभी हमारे द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व की महत्ता लोकजीवन में सार्थक बन सकेगी.
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५
वृत्तान्त सागर * अक्षय तृतीया के पवित्र अवसर पर प. पू. शासन प्रभावक, राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा आदिठाणा की पावन निश्रा में श्री वडनगर के आदीश्वरजी जैन मंदिर-संघ में विशाल पैमाने पर वर्षी तप पारणा का शुभ प्रसंग महोत्सव के साथ सुसम्पन्न हुआ. पंन्यास प्रवर श्री अरुणोदयसागरजी म. आदि ८० से अधिक तपस्वी आत्माओं का सबहुमान पारणा कराया गया.
* प. पू. परमात्मभक्ति रसिक, शिल्पशास्त्र मर्मज्ञ आचार्य प्रवर श्रीमत् कल्याणसागरसूरीश्वरजी म. सा. के संयम पर्याय के ५०वें वर्ष के उपलक्ष में श्री सिमन्धर जिन मंदिर के प्रांगण में परमात्मा की भक्ति सह अनुमोदना दिन मनाया गया. पूज्यपाद आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा ने पूज्य गुरूदेव के इस पवित्र प्रसंग. निमित्त विशाल सभा को उद्बोधन किया और जीवदया आदि के सुन्दर कार्य हुए. ___* जिनशासन के महान प्रभावक गुरु शिष्य दोनों पूज्य आचार्य भगवन्तों की पावन निश्रा में दिनांक २१.०४.९९ से २५.०४.९९ तक श्री सिमन्धर जिन मंदिर में अशोक वृक्ष सहित नूतन समोवसरण जिन मंदिरजी की अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव बड़े हर्षोल्लास पूर्वक मनाया गया. इस प्रसंग पर विविध महापूजन एवं साधर्मिक वात्सल्य युक्त जिनभक्ति महोत्सव का सुन्दरतम आयोजन किया गया. सोने में सुगन्ध की तरह दि. २२.०४.९९ के शुभ दिन पूज्य श्री के वरद हस्त तीन बहिनों की पारमेश्वरी भागवती प्रव्रज्या भी खूब ही उल्लास पूर्वक सम्पन्न हुई. तीनों नूतन साध्वीजी म. पूज्यपाद योगनिष्ठ आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी के समुदायवर्ति साध्वी म. सा. की शिष्याएं उद्घोषित हुए. नूतन साध्वीजी म. सा. के सांसारिक परिवार वालों में एवं पूज्य मुनिवरश्री निर्वाणसागरजी म. सा. के सांसारिक परिवार ने इस प्रसंग पर सुंदर सहयोग दिया. __* दि. २६.०४.९९ के दिन पूज्य पंन्यास प्रवरश्री अरुणोदयसागरजी म. सा. आदि मुनिवरों की शुभ निश्रा में श्री सिद्धपुर नगर में शेठ श्री अरणिकभाई कान्तिलाल शाह की ओर से परमात्म भक्ति स्वरूप श्री सिद्धचक्र महापूजन बड़े ही ठाट-बाट से पढाया गया. श्री अरणिकभाई के पिताजी की भावनानुसार उन्होनें उदार दिल से लाभ लिया. . * समर्थ जैनाचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा का महेसाणा नगरसे राजस्थान की ओर शासन प्रभावना हेतु विहार हुआ. पूज्यश्री का विहारस्थ अनेक गाँव-नगरों में गुरुभक्ति स्वरुप सामैया (स्वागत) हुआ. पूज्यश्री के प्रेरक प्रवचनों का हजारों लोगों ने लाभ पाया.
पूज्य आचार्यश्री के युवा शिष्यरत्न मुनिश्री निर्मलसागरजी की सत्प्रेरणा से माउन्ट आबु में नव निर्मित 'श्री बुद्धिविहार' आध्यात्मिक साधना केन्द्र में पूज्य आचार्य श्री का पदार्पण हुआ. यहाँ से आप गढ़ सिवाना मुनिश्री विमलसागरजी म. सा. के सांसारिक माता-पिता श्री छगनलालजी जीवाजी बागरेचा के जीवित महोत्सव के निमित्त पधारे. यहाँ से पादरु - नाकोडाजी होते हुए आपश्री श्री घेवरचंदजी नाहर द्वारा नवनिर्मित श्री सिमंधर जिन मंदिर की प्रतिष्ठा सम्पन्न कर महेसाणा पधारे. यहाँ पर आपश्री एवं आपके गुरूदेवश्री की पावन निश्रामें नूतन दीक्षित (चार बाल मुनियों की व तीन साध्वीजीयों की) साधु-साध्वीजी म. की बड़ी दीक्षा विधि समारोह का आयोजन सम्पन्न कर साबरमती-रामनगर चातुर्मास हेतु पधारे. .
* १ मई से ७ मई १९९९ तक जैन धार्मिक शिक्षण शिविर का आयोजन श्री रांतेज जैन तीर्थ की शीतलछाया में पू. पंन्यासश्री अरुणोदयसागरजी की पावन निश्रा में एक सफल फलश्रुति के रूप में सुसम्पन्न हुआ. बालकों को धार्मिक संस्कार प्रदान करने में निष्णात आपश्री का रांतेज से अहमदाबाद पदार्पण हुआ. वटवा आश्रम तथा राजनगर में विचरण करते हुए आपने गांधीनगर जैन संघ में चातुर्मास प्रवेश किया.
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चातुर्मास समाचार
परम पूज्य गच्छाधिपति आचार्य भगवन्त श्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी एवं पू. आचार्य श्री मनोहरकीर्तिसागरसूरिजी आदि ठाणा अहमदाबाद के १३२, श्यामल रो हाउस, सेटेलाईट में चातुर्मास विराज
श्रुतसागर, श्रावण २०५५
रहे है.
* प.पू. शिल्पशास्त्र मर्मज्ञ, आचार्य भगवन्तश्री कल्याणसागरसूरिजी म. सा. एवं मुनिश्री शिवसागरजी म.सा. आदि ठाणा का चातुर्मास श्री सिमन्धर जिनमंदिर तीर्थ. महेसाणा में सुसम्पन्न हो रहा है.
* शासनप्रभावक, राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा एवं पंन्यास श्री अमृतसागरजी व मुनिश्री विमलसागरजी म.सा. आदिठाणा श्री साबरमती रामनगर जैन श्वे. मू. पू. संघ में विविध आराधनाओं से सुशोभायमान चातुर्मास में विराजमान हैं. आपकी निश्रामें अभी-अभी श्री प्रेमचंदनगर- कर्णावती में भव्य अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ.
* पूज्य पंन्यास प्रवर श्री वर्धमान सागरजी म. एवं पू. पंन्यास श्री विनयसागरजी म. आदिठाणा जैन श्वे. मू. पू. संघ अंकुर सोसाईटी, अहमदाबाद में चातुर्मास विराज रहे हैं.
* पू. ज्योतिषज्ञ पंन्यास प्रवर श्री अरुणोदय सागरजी म. एवं मुनिश्री अमरपद्मसागरजी म. आदिठाणा श्री जैन संघ उपाश्रय सेक्टर - २२ गांधीनगर में चातुर्मास विराज रहे हे. आपश्रीने हाल ही में अठ्ठाइ की महान तपश्चर्या परिपूर्ण की है.
* परम पूज्य श्रुतोपासक मुनिवर श्री निर्वाणसागरजी म.सा. एवं मुनि श्री प्रेमसागरजी म. आदि ठाणा श्री उस्मानपुरा जैन श्वे. मू. पू. संघ, अहमदाबाद में चातुर्मास सम्पन्न हो रहा है.
* प. पू. श्रुत प्रेमी मुनिवरश्री अजयसागरजी म. एवं मुनिवरश्री अरविन्दसागरजी म. आदि ठाणा दशापोरवाड जैन श्वे. मू. पू. संघ, अहमदाबाद में चातुर्मास बिराजे हुए हैं.
* पूज्य मुनिश्री निर्मलसागरजी एवं मुनिश्री पद्मोदयसागरजी म. आदिठाणा श्री बुद्धिविहार जैन साधना स्थली - माउन्ट आबु में चातुर्मास कर रहे हैं.
* रामनगर जैन श्वे. मू. पू. संघ में पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री की पावन निश्रा में अभी-अभी श्री श्रुत देवता भगवती माँ शारदा का जापानुष्ठान बडे उल्लास एवं आध्यात्मिक वातावरण में शास्त्रोक्त विधि-विधान से सुसम्पन्न हुआ. श्रुतदेवी की आराधना में २५० की संख्या में छोटे-बड़े समस्त चतुर्विध संघ ने लाभ लिया. मुनिश्री विमलसागरजी की इस पवित्र आराधना में अनुमोदनीय सत्प्रेरणा रही.
कोबा तीर्थ में आस्था की विजय :
विगत २२ मई १९९९ के दिन श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र - कोबा तीर्थ में भगवान श्री महावीर जिन प्रासाद में प्रतिवर्ष की भांति इस बार भी सूर्य किरणों का तिलक-प्रसंग चमत्कारिक ढंग से हुआ.
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इस दिन सुबह से ही भाविक भक्तजनों का दर्शन हेतु आगमन चालू रहा. ठीक निर्धारित समय २ बजकर सात मिनट के आधा घंटा पहले अरबी समुद्र से ठंडे चक्रवात के कारण देखते ही देखते घटाटोप बादल छा गये. किसी का इन्तजार किये बिना टिप टिप वारिश चालू हो गई और माहौल गमगीन जैसा बन गया. साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका सभी को लग रहा था कि इस घने बादलों में सूर्य तो क्या प्रकाश भी तो जब कहीं दिखता नहीं है तो भाल तिलक का दृश्य कैसे संभव होगा. एक क्षण में कुदरत सबों को हतोत्साह कर दिया. परन्तु देखिये कुछ निर्मल आत्माओं के हृदय में सचमुच श्रद्धा के प्राण धमधमा रहे थे. श्रद्धालु लोग आपस में कह रहे थे कुछ तो जरूर होगा. परमात्मा के पुण्य प्रभाव से जरूर आज चमत्कार होगा और वही हुआ जो सच्चे भक्तजनों के अन्तरपट में गहराई से पड़ा था. जैसे-जैसे समय नजदीक आया
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५
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और दो बजते ही बरसात रूक गई. एक मिनट में सारे बादल हट गये. सूर्य देवता प्रचंड ताप लेकर पुनः दृश्यमान होने लगे और २.०५ के समय सूर्य किरणें प्रासाद शिखर से होकर भगवान महावीर देव के मुख कमल स्थित भालतिलक के बराबर केन्द्र में शोभायमान हीरों को हजारों किरणों ने देदीप्यमान कर दिया. उपस्थित सैकड़ों भाविकों की महेच्छा परिपूर्ण होते ही परमात्मा के जयनाद के साथ अनेकशः नारे गुंजायमान हो उठे.
वाचक बन्धुओं को याद रहे कि यह प्रसंग इसलिये यावच्चन्द्र दिवाकरौ किया गया है कि इसी दिन इसी समय पूज्यपाद, गच्छाधिपति सच्चरित्र चूड़ामणी आचार्य भगवन्त श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराजा के पार्थिव देह का अग्नि संस्कार किया गया था. उन पूज्य युगमहर्षि द्वारा जैन शासन पर किये गए अनगिनत उपकारों को जीवन्त रखने हेतु समुचित प्रयासों से यह अद्भुत घटना प्रतिवर्ष होती रहती है. इस प्रसंग पर पधारे हुए सभी यात्रालुओं का आराधना केन्द्र के परिसर में सुन्दर स्वागत किया गया. साधर्मिक भक्ति के रूप में लड्डु • और नमकीन की प्रभावना की गई एवं आश्चर्य की बात यह है कि जब प्रसंग सुख शान्ति से निपट गया, लोग अपने-अपने स्थान चले गये कि तुरन्त जोरदार बारिश शुरु हो गई.
शुभविचार - गंगाजल
नीच विचारों का हमेशा के लिए परित्याग करना हो तो शुद्ध विचारों में ही रमण करना चाहिए
अहर्निश
A
- श्रीमद् बुद्धि सागरसूरिजी
नियमित चिन्तन करने की आदत डालनी चाहिए. मन ही मन असीम विचार करते रहने से मस्तिष्क को नुकसान पहुँचता है. प्रायः मानसिक उच्चता वृद्धिगंत हो, ऐसे विचार करते रहने से शुभ संस्कारों में वृद्धि होती है. मैत्री आदि भावना को निरंतर अपने मन में संजोए रखने से आत्मिक शुद्धि होती है.
सर्वप्रथम रजोगुण व तमोगुण के विचारों को मन में से सर्वस्वी निकाल, सात्विक गुणों से उसे ठसाठस भर देना चाहिए. वैसे ही सात्विक विचार करने की आदत डालने से रजोगुण व तमोगुणात्मक विचारों का सहज में ही नाश होता है. सुविचार के कारण कुविचार स्वयं नाश हो जाते हैं.
चिंतनीय विचारों को हर्ष के विचारों में तब्दील करना चाहिए और अस्थिर विचारों को स्थिर अपवित्र प्रेम के विचारों को पवित्र प्रेम के विचारों में परिवर्तित कर देना चाहिए. कहने का तात्पर्य यह है कि नीच विचारों का हमेशा के लिए परित्याग करना हो तो अहर्निश शुद्ध विचारों में ही रमण करना चाहिए.
उच्च विचारों में व्याप्त मन प्रायः उच्च लेश्या के विचारों का अभ्यास करने में समर्थ सिद्ध होता है और फिर एक बार शुद्ध विचारों का अभ्यास दृढ़ हो जाने पर अशुद्ध विचारों का एकाएक प्रवेश होना प्रायः असम्भव है. शुद्ध विचारों की शक्ति बढ़ जाने पर उसके मुकाबले अशुद्ध विचारों का जोर टिक नहीं सकता.
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हर पल व हर क्षण मन में किस प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं, उसकी पूरी सावधानी बरतनी चाहिए और कौन सा विचार किस कारण उत्पन्न हुआ है, उसका ख्याल रखना चाहिए. क्योंकि पश्चानुपूर्व से कैसे-कैसे विचारों की उत्पत्ति हुई है, इसे जानने ...आत्मसात् करने का अभ्यास करने पर उपयोग की वृद्धि होती है. नल का पानी जितना लेना हो उतना ले सकते है. ठीक उसी तरह मन को नल का स्वरूप प्रदान कर करने योग्य विचार ही करना चाहिए.
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જૈન દર્શનમાં પ્રકાશપુંજ
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५
સમ્યગ્ દર્શન-૨
મુનિ શ્રી અમરપદ્મસાગરજી મ.સા.
ગતાંકથી આગળ...] સમ્યક્ત્વી આત્માની અનેક આગવી વિશેષતાઓમાં એક એવી વિશેષતા એ છે કે જ્યારે-જ્યારે કોઈપણ કારણથી અશુભ પ્રવૃત્તિ કે અશુભ પરિણામથી એ અશુભ કર્મબંધ ઉપાર્જન વખતે અશુભ કર્મના અનુબંધનો ઉપાર્જન નથી ક૨તો કારણ કે રૂચિ પ્રમાણે અનુબંધ ઉપાર્જિત થાય છે. સમ્યક્ત્વ ધારક આત્માને અશુભ પ્રવૃત્તિ કે અશુભ પરિણામમાં જરાય રૂચિ નથી માટે એને અશુભનો અનુબંધ પણ પડતો નથી.
જૈન શાસનમાં બંધ કરતાં અનુબંધની મહત્તા વધારે છે. અને જેનો એક વખત પણ અશુભ અનુબંધ નાશ પામ્યો હોય એ વ્યક્તિ નિશ્ચિત સંસારનો અન્ત કરે છે. વીતરાગના શાસનમાં સમ્યક્ત્વને અમૃતની ઉપમા આપી છે. જેમ અમૃતના પાનથી વ્યક્તિ અમર બને છે તેમ સમ્યક્ત્વના અનુભવથી આત્મા અજરામર પદને પામે છે. સમ્યક્ત્વ વિનાનું શાસ્ત્રજ્ઞાન સમ્યજ્ઞાન ન બની શકે.
સમ્યક્ત્વ વિનાનું ચારિત્ર્ય સમ્યગ્ ચારિત્ર્ય ન બની શકે. માટે સહુથી પહેલા સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્તિનો પુરૂષાર્થ ઉપાદેય છે.
સમ્યક્ત્વ પામેલા આત્માઓ ભલે અવિરતીના ઉદયના કારણે સંસારમાં રહેતા હોય છતાં સંસારમાં ૨ાચી માચીને ૨હેતા નથી, માટેજ કહ્યું છે કે સમ્યગ્દર્શનપૂતાત્મા ન ૨મતે ભવોદ.
સમ્યગ્દર્શનથી પવિત્ર બનેલી આત્માને ધર્મ સાંભળવામાં અત્યન્ત આનન્દ આવે છે. એના માટે શાસ્ત્રમાં દૃષ્ટાંતથી સામાન્ય રૂપરેખા બતાવી છે. કારણકે એ આનન્દને વાસ્તવમાં કોઈ ઉપમા આપી શકાતી નથી. દૃષ્ટાન્ત- જેમ કોઈ યુવાન વ્યક્તિ સંગીતકળાનો જાણકાર હોય અને પોતાની પ્રિયાની સાથે હોય ત્યારે એવા વ્યક્તિને દિવ્ય સંગીત સાભળવામાં જે આનંદ આવે એના કરતાં અનન્તગણો આનંદ સમ્યગ્દષ્ટિને ધર્મશ્રાવણમાં આવે છે.
યોગબિન્દુમાં તો પૂજ્ય આચાર્યશ્રી હરિભદ્રસૂરિજી મ.સા. તો ત્યાં સુધી કહે છે કે જેની નિવિડ રાગ-દ્વેષની ગાંઠ નાશ પામી ગઈ છે અર્થાત્ સમ્યગ્દર્શનને પામેલા આત્મા જો પોતાના કુટુમ્બ, વ્યાપાર વિગેરેની ચિન્તા પણ સંસારવૃદ્ધિનું કારણ તો ન બને પણ પરંપરાએ નિર્જરાનું કારણ બને છે. કારણ કે નિશ્ચયનયથી જ્યાં તમારું ચિત્ત છે તેના પ્રમાણે તમને ફળ મળે છે. અને સમ્યગ્દષ્ટિનું ચિત્ત તો સદૈવ મોક્ષની આકાંક્ષાવાળું હોય છે. માટેસ્તો પૂ. હરિભદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. એ કહ્યું છે કે સમ્યગ્દષ્ટ યા યા ચેષ્ટા સા સા મોક્ષ પ્રાપ્તિ પર્યવસાનફલા અર્થાત્ સમ્યગદૃષ્ટિની માનસિક, વાચિક, કાયિક બધીજ ક્રિયાઓ પરંપરાએ મોક્ષ ફળને પ્રદાન કરનારી છે.
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સિદ્ધાન્તકારોના મતે કેટલાક અનાદિ મિથ્યાદષ્ટિ જીવ જ્યારે સર્વ પ્રથમ સમ્યક્ત્વ પામે છે ત્યારે તથાવિધ સામગ્રીના સદ્ભાવમાં અપૂર્વક૨ણના પ્રભાવથી સત્તામાં ૨હેલા મિથ્યાત્વના પુદ્ગલોને સમ્યકત્વ મોહનીય મિશ્રમોહનીય અને મિથ્યાત્વમોહની રૂપ શુદ્ધ, અર્ધશુદ્ધ અને અશુદ્ધ એવા ત્રણ પુંજોમાં વહેંચી દે છે, ત્યાર પછી શુદ્ધ પુદ્ગલોને વેદવા રૂપ ક્ષાયોપશમિક સમ્યક્ત્વને પામે છે! પરંતુ કેટલાક અનાદિ મિથ્યાસૃષ્ટિ જીવો સર્વપ્રથમ સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ ક૨તી વખતે યથાપ્રવૃત્તિ વિગેરે કરણત્રય કર્યા પછી અન્તકરણ કાળમાં ઔપશમિક સમ્યક્ત્વને પ્રાપ્ત કરે છે પણ પુંજય ક૨તાં નથી. માટે ઔપશમિક સમ્યક્ત્વથી પડીને અવશ્ય મિથ્યાત્વ અવસ્થાને પામે છે!
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५
બીજી બાજૂ કર્મગ્રંથકારોના મતે બધાજ જીવો જ્યારે સહુથી પહેલી વખત સ મ્યકત્વની પ્રાપ્તિ કરે છે ત્યારે યથાપ્રવૃત્તિ વિગેરે ત્રણકરણ પછી અન્તરકરણ કાળમાં પંજત્રયકરણપૂર્વક પથમિક સખ્યત્વને પામે છે. ત્યાંથી પડીને જુદા-જુદા જીવો શુદ્ધ, અર્ધશુદ્ધ અગર અશુદ્ધ પુગલોના ઉદયથી માયોપથમિક સભ્યત્વ, મિશ્રમોહનીય અથવા મિથ્યાત્વ અવસ્થાને પામે છે. - ભૂતકાળમાં આમતો દરેક આત્માઓને અનન્તાન્ત ભવો થયા છે. છતાં સખ્યત્વ પામ્યા પછી ભાવોની ગણત્રી કરાય છે. આનાથી જ સિદ્ધ થાય છે કે સમ્યત્વ વગરના ભવોની કાંઈ કિંમત નથી અને સભ્યત્વ પામ્યા પછીજ ભવની કિંમત છે!
સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ ના મુખ્ય બે કારણો છે. ૧. નિસર્ગ અને ૨. અધિગમ.
(૧) નિસર્ગથી સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિનો હેતુ બાહ્ય વિશિષ્ટ નિમિત્તની અપેક્ષા રહિત માત્ર ભવિષ્યતાની પ્રધાનતાએ અનન્તાનુબંધી ક્રોધ માન-માયા-લોભ તથા મિથ્યાત્વમોહનીયાદિના ક્ષયોપશમાદિથી સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ થાય છે!
(૨) અધિગમથી સમ્યત્વને પ્રાપ્ત કરવા માટે બાહ્ય સદ્ સામગ્રીની અપેક્ષા રહે છે જેમકે કોઈક જીવ જિનેશ્વર પરમાત્માના બિમ્બના દર્શન કરીને અને બિમ્બમાં રહેલા વીતરાગાદિ ગુણોથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરીને સમ્યગ્દર્શનને પ્રાપ્ત કરી શકે, આવીજ રીતે દેવ-ગુરૂ ધર્મના દર્શનથી સગુરૂઓના સદુપદેશથી અને અનિત્યાદિ ભાવનાઓથી સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ થાય છે!
સમત્વની પ્રાપ્તિ માટે અથવા પ્રાપ્ત કરેલા સમ્યગ્દર્શનને વધુ નિર્મલ કે સ્થિર કરવા માટે સુદેવ-સુગુરૂ અને સુધર્મ એ જ જગતમાં સારભૂત તત્ત્વ છે.
સર્વજ્ઞ વીતરાગાદિ ગુણોથી યુક્ત મારા આરાધ્ય દેવ છે. આ વીતરાગ દેવ કૃત કૃત્ય છે એમનામાં દોષનો અંશ પણ નથી. દોષયુક્ત આત્માને ઈશ્વર તત્ત્વમાં સ્થાપિત કદી કરાતો નથી. જૈન દર્શનની એ વિશેષતા છે કે જે વ્યક્તિ ઈશ્વર તત્ત્વની પ્રાપ્તિ માટે યોગ્ય પુરૂષાર્થ કરે તો એ વ્યક્તિ પણ ઈશ્વર બની શકે છે.
સંસારના સર્વસંગથી મુક્ત, અહિંસાદિ વ્રતોથી યુક્ત, નિર્દોષભિક્ષાદિ થી નિવહિત પોતાના ધર્મદેહ દ્વારા ઈશ્વર તત્ત્વની પ્રાપ્તિ માટે સદૈવ પ્રયત્નશીલ અને જગતના યોગ્ય જીવોને સર્વજ્ઞ કથિત ઉપદેશ આપનારા સાધુ પુરૂષો મારા માટે સુગુરૂ છે. આવા ગુરૂની આરાધના મારા સંસારનો અન્ત કરનારી છે.
સર્વજ્ઞ વીતરાગ પરમાત્મા દ્વારા કહેવાયેલ અહિંસા, સત્ય, અચૌર્ય, નિષ્પરિગ્રહ, સંયમ તપ વિગેરે પદાર્થોમાં જ ધર્મ છે. જે મોક્ષ પ્રાપ્તિના સાધનો છે તે ધર્મ છે, જે સંસાર પ્રાપ્તિના સાધનો છે તે અધર્મ છે. અને હું ઉપરોક્ત પ્રકારના ધર્મથી મારા આત્માને ભાવિત કરૂં અને અધર્મથી મારા આત્માને વિમુખ કરૂં ઈત્યાદિ દેવ-ગુરૂ -ધર્મના સ્વરૂપનો બોધ, તેની રૂચિ અને તેનામાં જ શ્રેષ્ઠતાનો અનુભવ સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિના અમોઘ સાધન છે! ].
पाठकों से नम्र निवेदन यह अंक आपको कैसा लगा, हमें अवश्य लिखें. आपके सुझावों की प्रतीक्षा है.
आप अपनी अप्रकाशित रचना/लेख सुवाच्य अक्षरों में लिख कर हमें भेज सकते हैं. उचित लगने पर प्रकाशित किया जाएगा. अस्वीकृत रचनाओं की वापसी के लिए उचित मूल्य के डाक टिकट लगा लिफाफा अवश्य भेजें.
संपादक, श्रुत सागर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
कोबा, गाँधीनगर ३८२२ ००९
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५ जीवन परिचयः
आचार्य श्री भद्रबाहुसागरजी म. सा.
गुजरात के चरोत्तर क्षेत्र की खमीरवन्त भूमि पर अनेक सपूतों ने जन्म लिया है जिनमें पूज्य हृदयरत्न गणि जैसे महाकवि और भारत के स्वातंत्र्य संग्राम में अनुपम भूमिका अदा करने वाले लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल भी सम्मिलित हैं. आणंद के पास ही बेड़वा नामक ग्राम है, जहाँ भीखाभाई गुलाबचंद और उनकी धर्मपत्नी जासुदबाई के घर कार्तिक सुदि ५, वि. सं. १९७४ के शुभ दिन एक बालक का जन्म हुआ. इस बालक का नाम भगुभाई रखा गया. इस मेधावी बालक ने मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की. इसी समय उसके
छोटे भाई चंदु का अकाल अवसान हो जाने से भगुभाई को आघात लगा. बाद में वे बोरसद निवासी अपने मौसा के यहाँ पू. मुनिश्री देवेन्द्रविजयजी के सान्निध्य में धर्ममार्ग में प्रवृत्त हुए तथा दो प्रतिक्रमण पढ़ कर दीक्षा लेने के संकल्प के साथ महेसाणा स्थित श्री यशोविजयजी जैन पाठशाला में धार्मिक अभ्यास हेतु प्रविष्ट हुए.
वाचकों को ज्ञात ही होगा कि यह पाठशाला दीक्षाभिलाषियों की शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती 'है. इसी पाठशाला ने योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि महाराज जैसे महान शासन प्रभावक समाज को दिये हैं. दीक्षा हेतु माता-पिता को राजी करने में बालक भगुभाई ने कोई कसर नहीं रखी और लगभग तीन वर्षों के परिश्रम स्वरूप वि. सं. २००१ में गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि म. सा. (उस समय मुनि) के पास महुड़ी में दीक्षा ग्रहण की. दीक्षा के बाद मुनि श्री भद्रबाहुसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए.
संयम ग्रहण करने के पश्चात् मुनि भद्रबाहुसागरजी म. सा. ने आगमों एवं शास्त्रों का गहन अध्ययन किया. वे प्रतिदिन एक घण्टे पद्मासन में बैठ कर योगाभ्यास करते थे. वि. सं. २०२५ में आपको गणि, वि. सं. २०२७ में पंन्यास, वि. सं. २०३३ में उपाध्याय तथा वि. सं. २०३९ में आचार्य पद से विभूषित किया गया.
आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरि म. सा. ने गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि क्षेत्रों में विहार कर जिन शासन की प्रभावना की थी. ५५ वर्ष के दीर्घ दीक्षा पर्याय में आपने विविध उग्र तपश्चर्याओं में वर्धमान तप की ७३ ओलियों के साथ ही छठे, अट्ठई, वर्षीतप आदि निर्विघ्न रूप से सम्पन्न की थी. सदैव पुस्तक, प्रतादि लिये वे ज्ञानार्जन करते ही रहते थे. सभी के लिए दादाजी नाम से अभिहित आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरि म. सा. का अगाध प्रेम एवं स्नेह रहता था. विगत पौष सुदि १२, वि. सं. २०५५ को नमस्कार महामन्त्र का स्मरण का स्मरण करते हुए आपने समाधि पूर्वक कालधर्म प्राप्त किया. इसके कुछ समय पूर्व आपके अस्वस्थ होने पर पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी म. सा. के शिष्य-प्रशिष्यों उनकी वेयावच्च की. आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरिजी म. सा. के चारित्र धर्म एवं शासन प्रभावना का समस्त संघ अनुमोदना करता है.. पृष्ठ १३ का शेष] पर्युषण... ___ अन्तिम ग्याहरवां वार्षिक कर्तव्य है आलोचना. जीवन में हुए अनेकविध पापों के प्रक्षालन स्वरुप प्रायश्चित के रुप में आलोचना लेना चाहिये. किये गये पापों के प्रायश्चित से आत्म शुद्धि होती है. और इस महान पर्वाधिराज पर्व पर्युषण का रहस्य भी तो पाप मुक्ति और आत्मशुद्धि करना है. अतः इन पांच तथा ग्यारह कर्तव्यों के आचरण से जैनशासन की शान विश्व व्यापी बनेगी तथा जिन धर्म का डंका चिहु दिशा में रणकार करेगा और संसार में जैन धर्म का वास्तविक प्रचार-प्रसार होगा.
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५ संस्था को मिला आत्मीय स्पर्श: अग्रणी संघ सेवक : श्री हेमन्तभाई चीमनलाल ब्रोकर (राणा)
___राणा परिवार का अहमदाबाद के जैन समाज में पेशवा काल से एक उत्कृष्ट स्थान रहा है. अहमदाबाद शहर में स्थित खेतरपाल की पोल में आज से लगभग १३ पीढ़ी पूर्व के श्री जगजीवनदासजी के समय से इसका इतिहास ज्ञात होता है. इन्हीं श्री जगजीवनदासजी के कुल में स्व. पोपटलाल हेमचंद जैसी श्रेष्ठ हस्ती का जन्म हआ था श्री पोपटलाल हेमचंद व्यवसायी होने के साथ ही धार्मिक एवं विद्याप्रिय श्रावक थे. उन्होंने किसी भी व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो भी हो सकता था किया. वे शिक्षा के क्षेत्र में अपने
सहयोग के लिए तन-मन-धन से सदैव तत्पर रहते थे. अपने घर पर अच्छे-अच्छे लोगों को आमन्त्रित कर सत्संग करते थे. पं. सुखलालजी के साथ उनका अच्छा साहचर्य था. १९३५ में उन्होंने पर्युषण व्याख्यान माला का प्रारम्भ किया तथा गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी में पोपटलाल हेमचंद व्याख्यान माला प्रारम्भ कराकर देश के दूर-दूर के विद्वानों को अहमदाबाद के जैन समाज के सामने प्रस्तुत करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. समाजसेवा की भावना से एक सेनीटोरियम तथा एलिसब्रिज अहमदाबाद में श्मशानगृह का निर्माण कर लोगों की परेशानियों को दूर की. इससे पूर्व शव के अन्तिम संस्कार के लिए नदी पार ले जाना पड़ता था. आपके अविस्मरणीय सहयोग से अहमदाबाद में श्री पोपटलाल हेमचंद जैन नगर में जैन देरासर एवं उपाश्रय का निर्माण हुआ है.
उदार शासनप्रिय धर्मनिष्ठ श्री पोपटलाल के पुत्र श्री चीमनलालजी के यहाँ उनकी धर्मपत्नी श्रीमती लीलावतीबेन की कुक्षि से ९ मई १९३५ को अहमदाबाद में एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम हेमन्त रखा गया. श्री हेमन्तभाई को अपने माता-पिता तथा दादा-दादी के पास उच्च धार्मिक-नैतिक शिक्षा प्राप्त हुई और आपने सी. एन. हाईस्कूल, अहमदाबाद एवं राजकुमार कॉलेज, राजकोट में अध्ययन किया. स्नातक उपाधि हेतु विज्ञान विषय में रसायन एवं भूस्तर शास्त्र का अध्ययन करने वाले श्री हेमन्तभाई को व्यावहारिक जीवन में प्रवेश करने पर आचार्य भानुचन्द्रसूरि म. सा. के साथ १९५२ में परिचय हुआ तथा धार्मिक प्रवृत्तियों में संलग्न होने की धुन चढ़ी उनकी प्रेरणा से श्री हेमन्तभाई १९६८ में श्री भानुप्रभा जैन सेनिटोरियम टस्ट के टस्टी बनें तथा १९७२ में इसका निर्माण पूरा हआ साथ ही १९७२ में सरत नगर के अठवा गेट विस्तार में दलीचंद्र वीरचंद्र श्रोफ ट्रस्ट के अन्तर्गत देरासर का निर्माण भी कराया. ___श्री हेमन्तभाई १९७५ में उस्मानपुरा, अहमदाबाद में उपधान के समय परम पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी, प. पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसरीश्वरजी म. सा. (उस समय मुनि) के सम्पर्क में श्री शान्तिलाल मोहनलाल के साथ आयें तथा थोड़े ही समय में आचार्य भगवन्त की विविध परियोजनाओं से जुड़ गये. आचार्यश्री की इच्छा थी कि अहमदाबाद गांधीनगर मार्ग पर उपनगर में एक छोटा सा देरासर तथा एक अभ्यास केन्द्र व ज्ञानभण्डार हो. इस योजना को उनके प्रशिष्य आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. का भी अनुमोदन था जिसे पूरा करने का भार भी श्री शान्तिलाल मोहनलाल शाह एवं श्री हेमन्तभाई पर आया. इस कार्य के लिए जमीन खोजना प्रारम्भ हुआ तथा तीन-चार जमीनों के प्रस्ताव भी आयें और अन्ततोगत्वा १९८० में स्व. रसिकलाल अचरतलाल शाह द्वारा कोबा में सहर्ष प्रदत्त लगभग १६,००० यार्ड जमीन पर देरासर बनना तय हुआ. इसे तीर्थ के रूप में विकसित करने के लिए गच्छाधिपतिश्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. की प्रेरणा से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा की स्थापना हुई. इसकी शिलारोपण विधि में प.पू. आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. एवं श्री
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११
श्रुतसागर, श्रावण २०५५ कल्याणसागरसूरीश्वरजी म. सा. उपस्थित थे. श्री हेमन्तभाई कहते हैं कि आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. के साथ जो प्लान तया हआ था वह एक छोटी सी योजना थी जिसमें मात्र ६५ लाख रू.की लागत से एक छोटा सा मन्दिर, ज्ञानभण्डार, छोटा उपाश्रय, भोजनशाला तथा प्रिन्टिंग प्रेस की व्यवस्था करने की बात सोची गई थी. उस समय कम्प्यूटर का ख्याल भी नहीं था और न ही संग्रहालय या ज्ञानमन्दिर का जो स्वरूप आज है वैसी कोई कल्पना थी. श्री हेमन्तभाई के अनुसार देरासर का निर्माण चल ही रहा था कि गुरूदेव श्री कैलाससागरसूरि म. सा. का अहमदाबाद में २१ मई १९८७ को कालधर्म हुआ. उनका अन्तिम
1 में करना तय हआ और दूसरे दिन २२ मई १९८७ को कोबा में अहमदाबाद नगर की विकट स्थिति होते हए भी अंकर से पार्थिव देह यहाँ लाकर अन्तिम संस्कार हआ.
प्रस्तावित मन्दिर के स्थान पर विशालकाय महावीरालय का निर्माण तथा आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर का बहुद्देशीय विकास, आचार्य श्री कैलाससागरसूरि स्मारक मन्दिर (गुरुमन्दिर), जैन आराधना भवन आदि का निर्माण हुआ है, गुरु देव आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ने इस तीर्थ के विकास के लिए जो भी काम किया है वह जैन समाज में २०वीं शताब्दी की अनूठी घटना मानी जाएगी कार्य करते-करते, समय-समय पर उपयोगिता की दृष्टि से मूल परियोजनाओं में अनेक परिवर्तन किये गये. इसी कारण इस केन्द्र का सराहनीय विकास इतनी अल्प अवधि में हो सका है तथा आज यह इस देश में न केवल जैन समाज बल्कि देश-विदेश के समस्त शिक्षित वर्ग में अपना अद्वितीय स्थान प्राप्त कर चुका है. ___ श्री हेमन्तभाई ने इस केन्द्र के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष के रूप में इसकी प्रवृत्तियों के संरक्षण, संवर्धन एवं विकास में अपना उत्कृष्ट योगदान कर जिन शासन की सेवा का अनुपम लाभ लिया है. बोरीज तीर्थ के विकास एवं आयोजन में श्री हेमन्तभाई का उत्कृष्ट योगदान प्राप्त हो रहा है. आपश्री अनेक जैन संस्थाओं से जुड़े हैं तथा अनेकों संस्थाओं के ट्रस्टी हैं जिनमें से कुछ संस्थाओं के नाम अग्रलिखित हैं- शेठ आणन्दजी कल्याणजी पेढी, दलीचंद्र वीरचंद्र श्रोफ ट्रस्ट (सूरत), तारंगा तीर्थ भोजनशाला, भानुप्रभा जैन सेनेटोरियम, एल. डी. चेरेटेबल ट्रस्ट, प्रेमचंदनगर-सेटेलाईट जैन मन्दिर इत्यादि. आणन्दजी कल्याणजी पेढ़ी के विविध कार्यों व नवीन विकासलक्षी परियोजनाओं में आपका उल्लेखनीय योगदान रहा है जिसमें तारंगा में धर्मशाला, शत्रुजय तलेटी में मण्डप-विस्तार एवं नवीन द्वार-निर्माण, चौमुखजी का द्वार, पहाड़ पर विसामा घेटीपाग के पास द्वार, स्टाफ क्वार्टर्स का निर्माण, पहाड़ पर पानी चढ़ाने की व्यवस्था, तलेटी में पारणाभवन, आराधना भवन का निर्माण, शेरीसातीर्थ में रंगमंडप एवं उपाश्रय का निर्माण आदि प्रमुख हैं.
हंसमुख स्वभाव के श्री हेमन्तभाई अपने अधीनस्थों से कार्य लेने में माहिर कहे जा सकते हैं. उनके स्वभाव की एक विशेषता यह कि यदि वे किसी पर नाराज भी हुए हो तो कुछ मिनट बाद ही भूल भी जाते हैं यह स्वभाव निस्संदेह उनकी गुणग्राहकता का परिचायक तथा उनकी सफलता का मूल मन्त्र लगता है जिसका अनुकरण किया जाना चाहिए. वे अपने व्यवसायी तथा धर्मनिष्ठ समाजसेवी जीवन के अतिरिक्त व्यक्तिगत जीवन में प्रकृति के प्रेमी भी हैं. गुजरात स्टेट हार्टिकल्चर सोसायटी के प्रथम सेक्रेटरी रहे हैं तथा ३० वर्षों तक आपके मार्गदर्शन में अहमदाबाद की जनता ने विविध प्रकार के फूलों, वनस्पतियों एवं साग-सब्जियों की प्रदर्शनियों का अवलोकन किया है. उन्होने लॉ गार्डेन के सामने कार्पोरेशन से विनती कर -एक रुपये के टोकन भाड़े पर सोसायटी के लिए जमीन उपलब्ध करा कर अहमदाबाद के पर्यावरण सुधार में उल्लेखनीय योगदान किया है. पेड़-पौधों वनस्पतियों के साथ उनका अटूट सम्बन्ध लगता है. उन्हें कला शिल्प, चिकित्सा के क्षेत्र में विशेष अभिरुचि है. देरासरों का निर्माण एवं संरक्षण कार्य करते-कराते शिल्प स्थापत्य के अधिकारी विशेषज्ञ बन गए हैं. सुबह से देर रात तक विविध कार्यों में तल्लीन श्री हेमन्तभाई . प्रतिदिन २०-२५ रोगियों को निःशुल्क होमियोपैथी चिकित्सा एवं मार्गदर्शन देने के लिए समय निकालते हैं. उनकी धर्मपत्नी सौ. हंसाबेन एक धर्मनिष्ठ गृहणी हैं जिनका श्री हेमन्तभाई को अपने [शेष पृष्ठ १५ पर
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५
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पर्युषण पर्व के कर्तव्य : एक परिशीलन
जैनशासन में अनेकों पर्व विद्यमान हैं. पर्व का सीधा अर्थ है उत्सव. पर्युषण का सरल अर्थ है आत्मा के आसपास रहना अर्थात् आत्मशुद्धि का उत्सव = पर्व पर्युषण. इन पर्व के दिनों में हमे आत्म विशुद्धि की आराधना करने का अवसर प्राप्त होता है. सभी पर्वो में पर्युषण पर्व को पर्वाधिराज की उपमा दी गई है। क्योंकि इस पर्व में कर्मों के भेदन की जो प्रक्रिया है और जो ताकत है वह अन्य पर्वो में नहीं है. इस बात से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैन शासन में पर्व रुप उत्सव मनाने का विधान कर्मो को छोड़ने के आशय से जुड़ा है. प्रत्येक जैन को कर्म के मर्म को नष्ट करने के लिये ही पर्वाराधना करनी चाहिये.
पर्व पर्युषण के उत्सव में यह तत्त्व मुख्य रूप से जुड़ा है. परमात्मा श्री महावीरदेव के शासन मे अनेकों पर्व होते हुए भी हम सभी पर्वो की आराधना न कर सके तो भी इस महान पर्व की आराधना अवश्य करनीचाहिये. इसलिये तो बारह महिनों में अनेक पर्व आते हैं. लेकिन जो उत्साह, उमंग पर्व पर्युषण में देखा जाता
वह अन्य पर्वों में नहीं देखा जाता. पर्युषण की आराधना में जो विशेषता है उसे समझ लिया जाय तो आराधना समुचित व लाभकारी होगी. परमात्मा श्री महावीरदेव ने पर्युषण पर्व में करने योग्य पांच कर्तव्य बताये हैं. इन पांचों कर्तव्यों के नाम हैं- १. अमारि प्रवर्तन २ साधर्मिकवात्सल्य ३. परस्पर क्षमापना ४. अट्ठमतप और ५. चैत्यपरिपाटी. इनके साथ-साथ वर्षभर में करने योग्य ग्यारह कर्तव्य भी जुड़ते हैं. इन कर्तव्यों के नाम हैं क्रमश:- संघपूजा, साधर्मिकभक्ति, यात्रा - त्रिक, स्नात्रमहोत्सव, देवद्रव्यवृद्धि, महापूजा, रात्रि जागरण, श्रुतभक्ति, उद्यापन, तीर्थप्रभावना और आलोचना.
सभी पर्वों में उत्तम पर्व पर्युषण ही है. उसमें भी सांवत्सरिक प्रतिक्रमण मुख्य अंग है. परस्पर 'मिच्छामि दुक्कडम्' द्वारा आत्मशुद्धि करके मैत्र्यादि भावना के विस्तरण पूर्वक 'सवी जीव करु शासन रसी' इसी कक्षा तक पहुंचना ही पर्युषण पर्व की सार्थकता है. अमारि का तात्पर्य है अहिंसा का प्रवर्तन करना. स्वयं अहिंसक बनना और आसपास भी अहिंसा का वातावरण हो ऐसा प्रबंध करना. आत्मशुद्धि की बात हो या कोई भी धार्मिक अनुष्ठान हो हिंसा के माहौल में वह परिपूर्ण नहीं हो सकता. अभय के नजदीक ही अध्यात्म में सहायक प्रकृति की शक्ति का सहयोग रहता है. अतः पर्युषण के दौरान यथाशक्य अहिंसक माहौल पैदा करने का विधान सर्व प्रथम किया है. दूसरा कर्तव्य साधर्मिक वात्सल्य है. जो धर्म करने की इच्छा वाला है उसे धर्म जिसमें रहता है उस धर्मीजन को बिना अपनाये धर्म सार्थक नहीं हो सकता. समान धर्मी को साधर्मिक कहते हैं. जिसके हृदय में धर्म विद्यमान है. उसे साधर्मिक भाई-बहन तो जगत के सभी संबंधों से अधिक संबंधी लगते है. शास्त्रों में भी कहा है कि संसार के संबंध अनेक किये लेकिन सच्चा संबंध तो साधर्मिकों का है. जो अन्य संबंधों से महा दुर्लभ माना जाता है. जिसके संबंध से अपनी आत्मा को महान लाभ होता हो वही संबंध सच्चा है. साधर्मिक के साथ नाता जोड़ने से धर्म के साथ नाता जुड़ता है अतः साधर्मी की भक्ति सह बहुमान करने से पर्युषण पर्व की आराधना पुष्ट होती है.
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तीसरा कर्तव्य है परस्पर क्षमापना करना. यूं कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा कि बिना क्षमापना के यह पर्वाधिराज की आराधना खोखली है. खमा लेना और क्षमा देना दोनों परस्पर एक सिक्के के दो पहलु हैं. अपने आन्तरशत्रुओं से छुटकारा पाने के लिये प्रथम हथियार है क्षमा. इसको अपनाये वगैर अन्य आराधनायें साफ तौर पर कुछ विशेष लाभ नहीं पहुंचा सकती. चौथा कर्तव्य है- अट्ठमतप.. यह तप महान् लाभ कर्ता है. तप से कठिनतम कर्म भी छूट जाते हैं. तपसा निर्जरा च तपसा किं न सिद्यति ? इस उक्त्यनुसार तप से आत्मा उपर वह प्रक्रिया होती है जो मिट्टी में मिले हुए सुवर्ण उपर अग्नि की भट्ठी में होती है. वर्ष भर में हमसे जो भूलें होती रहती है उसका यह दण्ड याने प्रायश्चित है. अट्ठमतप न होने की स्थिति में अन्य उपाय से भी इस तप की पूर्ति व लाभ प्राप्त होता है. एतदर्थ छह आयंबिल, छूटक एक-एक करके तीन उपवास,
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५
नौ निवी, बारह एकासन, चौवीस बियासने अथवा सर्वथा तप के न होने पर छह हजार श्लोक प्रमाण शास्त्राध्ययन. इनमें से कोई एक विकल्प से अट्टम तप की पूर्ति की जा सकती है.
पांचवां कर्तव्य है चैत्यपरिपाटी चैत्य का अर्थ है जिनमंदिर. परिपाटी का अर्थ है दर्शन पूजा के लिये क्रम. अर्थात् जिनशासन की प्रभावना हो एवं अपने मोभे के अनुरूप ठाटबाठ से चतुर्विध संघ सहित बैण्डबाजों के साथ जिन मंदिरों की पूजा अर्चना करने सामुहिक रुप से निकलना अपने उपकारियों के प्रति विनय, भक्ति का भाव व्यक्त करने के लिये इस कर्तव्यता का उपदेश है. इन पांचों कर्तव्यों के पालन से पर्व पर्युषण की आराधना लाभदायी होती है. जिनशासन की प्रभावना होती है. सच्चे जैनत्व की पहचान होती है. इन कर्तव्यों को अदा करने में अपनी शक्ति को छिपाना मतलब अपनी आत्मा के साथ धोखाधड़ी करना है.
पर्व पर्युषण निमित्त पांच कर्तव्यों के साथ-साथ वर्षभर में परमात्मा की आज्ञा का पालन होता रहे इसलिये वार्षिक ग्यारह कर्तव्य भी करणीय है. इससे पर्युषण पर्व की प्रेरणा वर्षभर जीवंत रहती है अतः वर्ष में कम से कम एक बार संघपूजा करनी चाहिये. साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ की यथा शक्ति वस्त्र-पात्रादि से सत्कार - सन्मान व बहुमान करने को संघ पूजा कहा जाता है. जिनेश्वरों की आज्ञा को शिरोधार्य करने वाला यह संघ पच्चीसवें तीर्थंकर की उपमा को प्राप्त हुआ है. अतः संघपूजा का महत्व और भी ज्यादा अंकित हुआ है.
साधर्मिकभक्ति पांच कर्तव्यों में आ जाने पर भी समय-समय पर सधर्मी की भक्ति करने को कहा गया है. यात्रा - त्रिक, याने वर्ष में एक बार जिन मंदिर में अष्टानिका महोत्सव करना अथवा संघ में प्रभु भक्ति का उत्सव होने पर यथाशक्ति लाभ लेना. जिनशासन की प्रभावना हो ऐसे रथयात्रा का आयोजन करना तथा शत्रुंजय आदि तीर्थों की यात्रा करनी अथवा करवानी इसे यात्रा - त्रिक कहते हैं. चौथा- स्नात्रमहोत्सव करना योग होने पर अनेकों आत्माओं को भक्ति का लाभ मिले ऐसी सामुहिक स्नात्रपूजा पढ़ाना. पांचवां देवद्रव्य की वृद्धि करना. संघ मे इन्द्रमाळा पहनना, पर्युषण में प्रत्येक प्रसंगों की बोलियां बुलवाकर देवद्रव्य की वृद्धि करना आदि. इससे प्राचीन अर्वाचीन जिनालयों की देखभाल करने में सुविधा होती है तथा मंदिरों के लिये द्रव्य सुरक्षित रहता है. आज शत्रुंजय, आबु, राणकपुर, समेतशिखरजी पावापुरीजी आदि तीर्थों का विद्यमान होना तथा कला स्थापत्य का सुरक्षित रहना इस देवद्रव्य के बदौलत ही संभव हुआ है. छट्ठा महापूजा रचाना याने जिनमंदिर में जिनमूर्तियों की सुंदर अंगरचना कराना. प्रभुदर्शन करनेवाले का भाव और ज्यादा: बढ़े इसलिये इस कर्तव्य का विधान है. सातवां रात्रि जागरण करना. जिनशासन की मर्यादाओं का ख्याल रखते हुए परमात्मा के गुणों का कीर्तन करने पूर्वक सारी रात जागना. इस कर्तव्यता से परमात्मा के पंच कल्याणकों की आराधना का उपदेश है. आठवां श्रुत ज्ञान की भक्ति श्रुत याने आगम साहित्य. भगवानने जो तत्त्वज्ञान कहा उसे गणधर भगवंतोंने सूत्रबद्ध किया है. उन सूत्रों को संकलित कर व्यवस्थित किया गया है जिसे श्रुतज्ञान अथवा आगमशास्त्र कहा जाता है. इस कलिकाल में आगम ही शास्त्रचक्षु है. जिनमूर्ति और जिनागम से परमात्मा का शासन प्रवर्तमान है. इसलिये श्रुतज्ञान की भक्ति, उपासना करना उसे लिखवाना, संरक्षित करना, ज्ञानपंचमी तप आराधना करना, ज्ञानदान करना आदि श्रुतज्ञान की भक्ति का कर्तव्य अदा करना है. नौवा कर्तव्य उद्यापन. उद्यापन का सामान्य अर्थ है उत्सव. जिन शासन में तो कहा गया है कि छोटे-बड़े तप करके उसकी अनुमोदना के लिये उद्यापन करना चाहिये. उद्यापन में ज्ञान दर्शन चारित्र की सामग्री चयन कर दर्शनार्थ रखी जाती है. महोत्सव के समापन के समय चतुर्विध संघ को वह सामग्री समर्पित की जाती है. इसे वार्षिक कर्तव्य के रुप में एक बार अवश्य करना चाहिए. दसवां कर्तव्य है- तीर्थ. प्रभावना. जैनशासन की जय जय कार हो, प्रभावना हो, एतदर्थ देव गुरु धर्म की प्रभावना के प्रसंग वर्ष में एक बार आयोजित करना चाहिये. [शेष पृष्ठ ९ पर
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
कोबा, गांधीनगर ३८२ ००९
श्री संघों को विनम्र अपील आपको विदित होगा कि राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा से स्थापित श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र में स्थित आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर वर्तमानकाल के एक विशिष्ट एवं विलक्षण ज्ञानभंडार के रूप में ख्याति प्राप्त कर रहा है. इस ज्ञानभंडार में २,५०,००० से ज्यादा प्राचीन हस्तप्रतें सुरक्षित हैं. इनमें ३००० से ज्यादा ताड़पत्रीय ग्रंथ भी है. छोटे-छोटे गाँवों में अस्त-व्यस्त पड़े और नष्टप्राय स्थिति को प्राप्त इस दुर्लभ संग्रह को परम पूज्य राष्ट्रसंत शासन प्रभावक श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. ने अपने अब तक के ८०,००० किलोमीटर से ज्यादा लम्बे विहार के दौरान एकत्रित करवा कर भारत में ही सुरक्षित एवं संरक्षित करने का अनुपम प्रयास किया है, जो समुचित ध्यान न दिये जाने पर नष्ट होने अथवा विदेशों में स्थानान्तरित होने का भय.था. साथ ही यहाँ ८५,००० से ज्यादा मुद्रित पुस्तकें भी हैं. यह उल्लेखनीय है कि इन सभी ग्रंथों की सूक्ष्मतम जानकारी खास विकसित की गई सूचीकरण प्रणाली के द्वारा सर्वप्रथम बार कम्प्यूटर में भरी जा रही है. ___इस कार्य को सोलह कम्प्यूटरों के उपयोग से नौ पंडितों (जो कम्प्यूटर के उपयोग के लिये विशेष रूप से प्रशिक्षित किए गए हैं) एवं अन्य अनेक सह कर्मचारियों के सहयोग से किया जा रहा है. इसी कार्य को आगे चल कर बृहत् जैन साहित्य एवं साहित्यकार कोश के रूप में विकसित करने की योजना है. इसी के तहत जैसलमेर, पाटण, खंभात एवं लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति मंदिर, अहमदाबाद ताडपत्रीय व अन्य विशिष्ट ग्रंथों की विस्तृत सूची कम्प्यूटर पर ली जा चुकी है (हमारे लिये गौरव का विषय है कि जैसलमेर भंडार संबंधी यहाँ उपलब्ध सूचनाओं का उपयोग पूज्य मुनिराजश्री जंबूविजयजी ने भी जैसलमेर भंडार को व्यवस्थित करते समय एवं स्केनिंग के कार्य के समय किया था) एवं अन्य विशिष्ट भंडारों की सूची कम्प्यूटर पर लेने का कार्य क्रमशः जारी है. साथ ही अनेक भंडारों के विशिष्ट ग्रंथों की माइक्रो-फिल्म एवं जेरॉक्स नकलें भी एकत्र की गई है. इस कार्य के पूरा होते ही प्रायः समग्र उपलब्ध जैन साहित्य एवं साहित्यकारों की सूचनाएँ एक ही जगह से उपलब्ध हो सकेगी.
- वैसे आज भी जैन साहित्य एवं साहित्यकारों के विषय में इस संस्था में जितनी सूचनाएँ उपलब्ध हैं वे अन्यत्र कहीं भी नहीं है. चूंकि यह ज्ञानमंदिर जैनों की नगरी अहमदाबाद के एकदम समीप स्थित हैं अतः पूज्य साधु-साध्वीजी म. सा., विद्वद्वर्ग एवं सामान्य श्रद्धालुजन भी इन सूचनाओं का महत्तम मात्रा में उपयोग कर रहें है. साथ ही यह प्रयास भी किया जा रहा है कि और भी ज्यादा लोग यहाँ की सूचनाओं/सुविधाओं का उपयोग करें.
अपनी इस प्राचीन धरोहर सुसंरक्षित करने का यह कार्य अत्यंत ही श्रमसाध्य है एवं इस कार्य के वर्षों तक जारी रहने की संभावना है. उदाहरण के लिए अस्त-व्यस्त हो चुके बिखरे पन्नों वाले ग्रंथों के पत्रों का परस्पर मिलान कर के उन्हें पुनः इकट्ठा करने का प्राथमिक कार्य ही पंडितो का बहुत सा समय एवं श्रम माँग लेता है. इसके बाद संशुद्ध रूप से सूचीकरण हेतु हस्तप्रत संबद्ध लगभग आठ विविध प्रक्रियाएँ होती है. इतने विशाल पैमाने पर इस तरह का बहुउपयोगी कार्य सर्वप्रथम बार ही हो रहा है. यह कार्य ज्यों-ज्यों आगे बढता जाएगा, त्यों-त्यों जैन साहित्य के संशोधन एवं अभ्यास के क्षेत्र में एक नए युग का उदय होता जाएगा. निःसंदेह यह भगीरथ कार्य समूचे श्रीसंघ एवं जैन समाज का अपना कार्य है. इसी से हमें अपने साहित्य की समृद्धि एवं अपने गौरवपूर्ण इतिहास का विशेष बोध होगा.
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श्रुतसागर, श्रावण २०५५
१५
श्रुत निधि की श्री जैन संघों में संरक्षित एवं संवर्धित करने की विश्व में अद्वितीय एवं उज्ज्वल गौरवपूर्ण मिसाल रही है. सम्राट कुमारपाल महाराज एवं वस्तुपाल व तेजपाल आदि के इस दिशा में कार्य एवं योगदान को इतिहास कभी भूला नहीं सकेगा. समस्त श्रीसंघ, जैन समाज एवं आर्य संस्कृति के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण इस ज्ञानयज्ञ में शक्यतम ज्यादा से ज्यादा सहकार करने हेतु हम आप से आग्रह भरा विनम्र अनुरोध करते हैं. हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि समस्त संघों एवं तीर्थों के ट्रस्टीगण श्रुतभक्ति के इस अद्वितीय कार्य में तहेदिल से सहकारी बन कर महत्तम धनराशि उपलब्ध करायेंगे.
सम्पर्क सूत्र :
चेयर मेन
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर ३८२००९
फोन : (०२७१२) ७६२०४, ७६२०५ ७६२५२ फेक्स ९१-२७१२-७६२४९
धर्मस्य मूलं विनयः
पृष्ठ १६ का शेष ] सद्भावना मिल जाएगी तो प्रसन्नता स्वयं आ जाएगी.
यहां भी उस परमात्मा को सर्वप्रथम भावपूर्वक नमस्कार किया गया कि भगवन् तुझे नमस्कार करके मैं इस कार्य के अन्दर प्रवेश कर रहा हूं. इस लेखन कार्य के अन्दर, जो मुझे जगत् को देना है और जो कुछ जगत को दिया जाय, वह विशुद्ध हो, अमृत तुल्य हो. उसमें मनोविकार रूपी विष का प्रवेश न हो जाए. अहं की दुर्गन्ध इन शब्दों में न आ जाए. इसीलिए प्रथमतः नमस्कार की मंगल क्रिया सम्पादित की गयी ताकि जगत् का मार्ग-दर्शन करने की प्रक्रिया में कहीं मनोविकृति न हो. विशुद्ध अमृत तत्त्व इसके अन्दर दिया जाये जिसका पान करके आनन्द का अनुभव हो सके..
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बहुत सारे ऐसे विकृत लेख आपको मिलेंगे. बहुत गलत मार्गदर्शन मिल जाएंगे. पश्चिम सभ्यता की आंधी इतनी खतरनाक है कि वह साइक्लोन सारी दुनिया के अन्दर वायरस फैलाने वाला है. विषाक्त कीटाणु फैलाने वाला है. उनका एक ही दर्शन है, उनकी एक ही मान्यता "खाओ, पीओ, ऐश करो
कल तो तुम मर जाओगे." जहां परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं है. स्वयं की आत्मा में आत्मविश्वास नहीं, जहां किसी प्रकार का जीवन में अनुशासन नहीं, जहां भोग का अतिरेक हो, वहां यही दशा होगी. मरना तो सबको है. ज्ञानियों ने कहा- मरना भी एक अपूर्व कला है. जिसका सारा ही जीवन धर्ममय होगा. विनम्रतापूर्वक जहां जीने की सुन्दर कला होगी. जहां विचारों का अपूर्व सौन्दर्य होगा, वहां उस आत्मा की मृत्यु भी जगत् को प्रेरणा देने वाली बनेगी, उसका सारा ही जीवन परोपकारमय होगा.
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पृष्ठ ११ का शेष ]
संघ सेवक श्री हेमंतभाई ..
समय के सम्यक् सदुपयोग में सहयोग मिलता है. श्री राणा दम्पति अपने पुत्र श्री मनन, पुत्रवधू अमीबेन, पौत्र चि. श्री हर्ष एवं पौत्री चि. देवांशी के साथ सुख से जीवन-यापन कर रहें हैं. श्रुतसागर की ओर से श्री भाई के स्वस्थ दीर्घायुष्य के लिए प्रार्थना...
पर्वाधिराज पर्व पर्युषण के पावन प्रसंग पर हमारा अन्तःकरण से .
मिच्छामि दुक्कडम्
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र परिवार
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जो खमइ तस्स अस्थि आराहणा । जो न खमइ तस्स नत्थि आराहणा । ।
भगवान महावीर देव ने फरमाया है- हे गौतम! जो खमता है और जो खमाता है वह आराधक है जो नहीं खमता / खमाता वह विराधक है.
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर, श्रावण 2055 धर्मस्य मूलं विनय: ___आचार्य श्री पद्मसागरसूरि परमात्मा महावीर का कथन है कि धर्म का जो मूल है, वह विनय है और विनय के द्वारा ही व्यक्ति प्रेम का साम्राज्य स्थापित कर सकता है, जगत में प्राणीमात्र के अन्तस्तल में अपना स्थान बना सकता है. इसमें सारे क्लेशों और कटुता का नाश करने की अपूर्व क्षमता समाहित है. नम्रता के द्वारा हम अपनी क्षमा की भावना प्रकट करते हैं. अपनी तिक्तता विसर्जित करते हैं. अपने वैर भाव को हम तिलांजलि दे देते हैं. अनन्त काल के संसार का भेद इसी नम्रता की क्रिया के द्वारा ही हम प्राप्त करते हैं. इसीलिए संसार के प्रत्येक धर्म के अन्दर सर्वप्रथम नमस्कार को महत्त्व दिया गया है. मंदिर जाएं, प्रभु का दर्शन करें, रास्ते में सन्त मिल जाएं, गुरूजन मिल जाएं तो नमस्कार अवश्य करें. घर के अन्दर अपने माता-पिता या बड़े भाई या जो भी घर में बड़े हैं, सर्वप्रथम व्यवहार में भी नमस्कार करें. कहीं पर जब आफिसर के पास काम कराने जाये तो वहां भी पहले ही नमस्ते, नमस्कार करते हैं. बड़ी अपूर्व क्रिया है. विलक्षण चमत्कार इस नमस्कार की क्रिया में अन्तर्निहित है. शुद्ध भाव से परमात्मा को किया हुआ नमस्कार मोक्ष का कारण बनता है. हमारे यहां प्रतिक्रम पाप की आलोचना की. जो सबसे श्रेष्ठ क्रिया है, उसमें स्पष्ट कह दिया गया है इक्को वि नमुक्कारो जिनवर-वसहस्स वद्धमाणस्स। संसार सागराओ तारेइ नरं व नारिं वा।। (अर्थात् जिनेश्वरों में उत्तम ऐसे श्री महावीर प्रभु को किया हुआ एक भी नमस्कार पुरुष अथवा नारी को संसार रूप सागर से तिरा देता है.) संसार के इस सागर से आत्मा तैरकर किनारा प्राप्त कर लेती है ऐसी अपूर्व क्रिया है इस नमस्कार में. इस लिए ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम नमस्कार को महत्त्व दिया है. आपको मालूम होगा घर के अन्दर इलेक्ट्रिक स्विच आप रखते हैं और यदि स्विच ऑफ कर दें तो लाइट चली जाती है. स्विच जैसे ही ऊपर हुआ, उसका माथा गर्वेण तुंगं शिरः, गर्व से, अभिमान से उसका माथा आपने ऊँचा कर दिया, ऑफ कर दिया लाईट चली जाएगी, अन्धकार मिलेगा परन्तु जैसे ही स्विच आपने ऑन कर दिया, स्विच को नमा दिया तो उसमें नमस्कार का चमत्कार देखा - तुरन्त लाइट आ जाती है. यह मन का बटन है, मन का स्विच है. ___ मन को विपरीत करिये तो क्या बनता है- नम. मन का स्विच यदि आपने ऑन कर दिया, औंधा कर दिया और मिलेगी नमस्कार डिवाइन लाईट. अन्धकार में ज्ञान का प्रकाश आएगा. यह रहस्य है. मन के स्विच को ऑन करके रखिये. नमस्कारपूर्वक हरेक क्रिया करिये. नमस्कार की भावना से प्राप्त करने की उत्कण्ठा रखिये. सारी समस्या दूर हो जाएगी. मन का तनाव दूर हो जाएगा. मन को हल्का बना देगा. नमस्कार की क्रिया में यही रहस्य है. बडी प्रसन्नता होगी. अनेक व्यक्तियों की जब... [शेष पृष्ठ 15 पर Book Post/Printed Matter प्रेषक : सेवा में संपादक, श्रुत सागर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382 009 (INDIA) फोन: (02712) 76252,76204, 76205 फेक्स : 91-2712-76249 प्रकाशक : सचिव, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर 382009. For Private and Personal Use Only