Book Title: Shrutsagar Ank 1999 09 009 Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर, श्रावण २०५५ जीवन परिचयः आचार्य श्री भद्रबाहुसागरजी म. सा. गुजरात के चरोत्तर क्षेत्र की खमीरवन्त भूमि पर अनेक सपूतों ने जन्म लिया है जिनमें पूज्य हृदयरत्न गणि जैसे महाकवि और भारत के स्वातंत्र्य संग्राम में अनुपम भूमिका अदा करने वाले लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल भी सम्मिलित हैं. आणंद के पास ही बेड़वा नामक ग्राम है, जहाँ भीखाभाई गुलाबचंद और उनकी धर्मपत्नी जासुदबाई के घर कार्तिक सुदि ५, वि. सं. १९७४ के शुभ दिन एक बालक का जन्म हुआ. इस बालक का नाम भगुभाई रखा गया. इस मेधावी बालक ने मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की. इसी समय उसके छोटे भाई चंदु का अकाल अवसान हो जाने से भगुभाई को आघात लगा. बाद में वे बोरसद निवासी अपने मौसा के यहाँ पू. मुनिश्री देवेन्द्रविजयजी के सान्निध्य में धर्ममार्ग में प्रवृत्त हुए तथा दो प्रतिक्रमण पढ़ कर दीक्षा लेने के संकल्प के साथ महेसाणा स्थित श्री यशोविजयजी जैन पाठशाला में धार्मिक अभ्यास हेतु प्रविष्ट हुए. वाचकों को ज्ञात ही होगा कि यह पाठशाला दीक्षाभिलाषियों की शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती 'है. इसी पाठशाला ने योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि महाराज जैसे महान शासन प्रभावक समाज को दिये हैं. दीक्षा हेतु माता-पिता को राजी करने में बालक भगुभाई ने कोई कसर नहीं रखी और लगभग तीन वर्षों के परिश्रम स्वरूप वि. सं. २००१ में गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि म. सा. (उस समय मुनि) के पास महुड़ी में दीक्षा ग्रहण की. दीक्षा के बाद मुनि श्री भद्रबाहुसागर के नाम से प्रसिद्ध हुए. संयम ग्रहण करने के पश्चात् मुनि भद्रबाहुसागरजी म. सा. ने आगमों एवं शास्त्रों का गहन अध्ययन किया. वे प्रतिदिन एक घण्टे पद्मासन में बैठ कर योगाभ्यास करते थे. वि. सं. २०२५ में आपको गणि, वि. सं. २०२७ में पंन्यास, वि. सं. २०३३ में उपाध्याय तथा वि. सं. २०३९ में आचार्य पद से विभूषित किया गया. आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरि म. सा. ने गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि क्षेत्रों में विहार कर जिन शासन की प्रभावना की थी. ५५ वर्ष के दीर्घ दीक्षा पर्याय में आपने विविध उग्र तपश्चर्याओं में वर्धमान तप की ७३ ओलियों के साथ ही छठे, अट्ठई, वर्षीतप आदि निर्विघ्न रूप से सम्पन्न की थी. सदैव पुस्तक, प्रतादि लिये वे ज्ञानार्जन करते ही रहते थे. सभी के लिए दादाजी नाम से अभिहित आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरि म. सा. का अगाध प्रेम एवं स्नेह रहता था. विगत पौष सुदि १२, वि. सं. २०५५ को नमस्कार महामन्त्र का स्मरण का स्मरण करते हुए आपने समाधि पूर्वक कालधर्म प्राप्त किया. इसके कुछ समय पूर्व आपके अस्वस्थ होने पर पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी म. सा. के शिष्य-प्रशिष्यों उनकी वेयावच्च की. आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरिजी म. सा. के चारित्र धर्म एवं शासन प्रभावना का समस्त संघ अनुमोदना करता है.. पृष्ठ १३ का शेष] पर्युषण... ___ अन्तिम ग्याहरवां वार्षिक कर्तव्य है आलोचना. जीवन में हुए अनेकविध पापों के प्रक्षालन स्वरुप प्रायश्चित के रुप में आलोचना लेना चाहिये. किये गये पापों के प्रायश्चित से आत्म शुद्धि होती है. और इस महान पर्वाधिराज पर्व पर्युषण का रहस्य भी तो पाप मुक्ति और आत्मशुद्धि करना है. अतः इन पांच तथा ग्यारह कर्तव्यों के आचरण से जैनशासन की शान विश्व व्यापी बनेगी तथा जिन धर्म का डंका चिहु दिशा में रणकार करेगा और संसार में जैन धर्म का वास्तविक प्रचार-प्रसार होगा. For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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