Book Title: Shrutsagar 2017 09 Volume 04 Issue 04
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir September-2017 ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७|| ॥१८॥ SHRUTSAGAR जड पुद्गलना भोगने, जाण्या मनमां रोग; शाताशातावेदनी, टळिया तेना शोग. विनाशिक पुद्गल सहु, तनधन मंदिर पेख; अविनाशी छे आत्मनो, धर्मज ज्ञाने लेख. पुद्गल प्रपंच कारमा, त्यां शुं सुखनी आश; पर आशाथी प्राणिया, थावे जगना दास. अंतरात्मा ध्यानथी, सेवो सत्य सदाय; शक्ति अनंती जेहनी, स्मरतां शिवसुख थाय. रमतां आत्मस्वरूपमां, पामे योगी सुख; पर पुद्गलमां जे रमे, पामे ते मन दु:ख. मन वच काया भिन्न छे, आत्मतत्त्व सुखकार; रत्यत्रयी- धाम छे, शुद्धरूप निर्धार. शुद्धरूप परमातमा, सत्ताथी परखाय; सेवो ध्यावो आत्मा, व्यक्तिभावे थाय. प्रेम भक्ति विश्वासथी, सेवो आत्म देव; आतम ते परमातमा, कीजे तेनी सेव. आत्मस्वभावे रमणता, सत्य चरण अवधार; गुण स्थानक आरोहवा, परपरिणति निवार. परपरिणतिना नाशथी, स्थिरता घटमां थाय; अखंड चिन्मय चेतना, शुद्धरूपता पाय. सारसार सहु ग्रंथy, सम्यक् चेतन ज्ञान; चेत्या तेमां जे रम्या, पाम्या शाश्वत स्थान. अनुभवज्ञाने ओळखे, ज्ञानी शिवपुर पंथ; निश्चय चरणे ते रम्या; सत्य थया निग्रंथ. भोग पंकमां लेपता, ज्ञानी कदा न पाय; जलपंकजवत् भिन्न ते, अंतरमांहि सदाय. अंतरवृत्ति आतमा, औदयिक भावे भोग; भोगवतां पण योगी जे, टाळे भवभय रोग. ॥१९॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ For Private and Personal Use Only

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