Book Title: Shrutsagar 2017 09 Volume 04 Issue 04
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RNI:GUJMUL/2014/66126 ISSN 2454-3705 श्रुतसागर | श्रुतसागर SHRUTSAGAR (MONTHLY) September-2017, Volume : 04, Issue : 04, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR : Hiren Kishorbhai Doshi BOOK-POST / PRINTED MATTER राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीधरजी महाराजा के __ मंगलमय सानिध्य में एवं श्रीराम नाथ कोविन्द, राष्ट्रपति. भारत के सरिमामय उपस्थिति में समाज उत्थान एवं लोकोपकार्य के पावन प्रसंग पर गुरु आशिष महापर्व राष्ट्रसंत आच, मत् पद्मसागरजी मह प.पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के ८३ वें जन्मोत्सव के शुभ अवसर पर श्री सीमंधरस्वामी जिनमंदिर के प्रांगण में आयोजित गुरुआशिष महापर्व की झाँकी आचार्य श्री कैलाससागसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्हील सिल நி बेय राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविन्दजी का बहुमान करते हुए श्री वीरेन्द्रकुमार जैन व कोबातीर्थ के प्रमुख श्री सुधीरभाई महेता गुजरात के मुख्यमंत्री श्री विजयभाई रूपाणी का बहुमान करते हुए नाकोडा तीर्थ के चेयरमेन श्री अमृतजी जैन 2 www.kobatirth.org गुरु आशिष महापर्व की झलक नाथ डी. भारत के के पावन प्रसंग पर For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीपप्रागट्य करते हुए राष्ट्रपति महामहिम श्री राम नाथ कोविन्दजी, गुजरात के राज्यपाल श्री ओ.पी. कोहलीजी, मुख्यमंत्री श्री विजयभाई रूपाणी तथा उपमुख्यमंत्री श्री नितिनभाई पटेल पर्व गुजरात के राज्यपाल महामहिम श्री ओ.पी. कोहलीजी का बहुमान करते हुए श्री सेवंतीभाई मोरखीया Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RNI : GUJMUL/2014/66126 ISSN 2454-3705 (आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रूतसागर श्रुतसागर SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष-४, अंक-४, कुल अंक-४०, सितम्बर-२०१७ ___Year-4, Issue-4, Total Issue-40, September-2017 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/ आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा भाविन के. पण्ड्या ज्ञानमंदिर परिवार १५ सितम्बर, २०१७, वि. सं. २०७३, भाद्रपद कृष्ण-१० बन आराध ना कन्च वीर जैन यch श्री ॥ असतं त विद्या प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय) श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रम 5 रामप्रकाश झा आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी Acharya Padmasagarsuri 9 1. संपादकीय 2. अनुभव बत्रीशी 3. Awakening 4. संवेग कुलक - एक वैराग्यप्रेरक रचना 5. सामायिक बत्तीस दूषणकथन सज्झाय 6. पुस्तक समीक्षा 7. गुरुपरंपरा गणि सुयशचंद्रविजयजी मुनि मेहुलप्रभसागर श्रीमति जागृति प्रजापति मुनि श्री न्यायविजयजी 8. समाचारसार * सौजन्य मैडल-होजरी सेन्टर बेंग्लोर - रेवतडा * प्राप्तिस्थान * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नूतन अंक आपके करकमलों में सादर समर्पित करते हुए हमें अपार हर्ष की अनुभूति हो रही है। ___ इस अंक में गुरुवाणी शीर्षक के अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “अनुभव बत्रीशी” प्रकाशित की जा रही है। इस कृति में बत्तीस दोहों के माध्यम से जीव के आत्मस्वरूप का वर्णन किया गया है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, जिसके अन्तर्गत जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है। ___ अप्रकाशित कृति प्रकाशन स्तंभ के अन्तर्गत इस अंक में गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. द्वारा संपादित “संवेगकुलक: एक वैराग्यप्रेरक रचना" प्रकाशित की जा रही है, जो अद्यावधि सम्भवतः अप्रकाशित है। प्राकृत भाषानिबद्ध इस कृति की चौदह गाथाओं में स्त्री के अंग-प्रत्यंग की अशुचियों का वर्णन किया गया है। इस कृति के भाव अंतःकरण में वैराग्य उत्पन्न करनेवाले हैं। दूसरी कृति आर्य मेहुलप्रभसागरजी म. सा. के द्वारा संपादित “आचार्य श्रीजिनलब्धिसूरि विरचित सामायिक बत्तीस दूषण कथन सज्झाय” है, जिसके अन्तर्गत सामायिक के बत्तीस दोषों का वर्णन किया गया है. पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में महावीरस्वामी के बाद के १००० वर्षों की गुरु परंपरा के अन्तर्गत आर्य महागिरिसूरि से आर्य सिंहगिरिसूरि तक की परंपरा का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। अन्त में कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि- अमदावाद द्वारा प्रकाशित सिद्धहेम प्राकृत व्याकरण की ढुंढिकावृत्ति की समीक्षा प्रस्तुत की गई है. आशा है, इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे अगले अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके। For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ अनुभव बत्रीशी आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी सद्गुरुपद पंकज नमी, पूज्य स्तुत्य हितकार; आत्मधर्म प्रगटाववा, मित्र महा अवतार. ॥१॥ स्वपर विवेचन वस्तुनु, आणी करो विवेक; उपादेय शुद्धात्मनो, खरो धर्म छे एक. जाण्यु आत्मस्वरूप तो, जाण्ये सर्व पदार्थ; आत्म तत्त्वना ज्ञानथी, अन्य नहीं परमार्थ. सूक्ष्मज्ञान जे आत्मनु, कापे कर्मानंत; जग जाणे तो शुं थयु. आवे नहीं भवांत. चरण करण तपजप सहु, आत्मबोध विण फोक; आत्मज्ञान परमार्थने, विरला समजे लोक; बाह्यज्ञानथी लोकमां, मानपूजा तो थाय; श्रोता वक्ता बाह्यना, बाह्यदृष्टिता पाय. पंचम गति दातार छे, सत्यज अनुभव ज्ञान; अंतर दृष्टि जागतां, होवे अनुभव भान. अंतर दृष्टि चेतना, त्यागे पुदगल संग; आत्मस्वरूपे रमणता, समता गंगतरंग, आत्मानुभव योगथी, झळके आतमज्योत; स्थिरोपयोगे ध्यानथी, अंतरमा उद्योत आत्मयोगी जे सुख लहे, होय न ते सुख क्यांय; इन्द्रादिक पदवी लहे, तो पण दु:खनी छांय. जे पाम्या ते त्यां रम्या, भूल्या पुद्गल भान; सुख संगे रंगे रमे, प्राप्ति शिवकर स्थान. मन चंचलता त्यां मटे, दर्शन स्पर्शन योग; भोगी थई त्यां भोगवे, अनंत सुखनो भोग; ॥१२॥ ॥६॥ |७|| ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir September-2017 ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७|| ॥१८॥ SHRUTSAGAR जड पुद्गलना भोगने, जाण्या मनमां रोग; शाताशातावेदनी, टळिया तेना शोग. विनाशिक पुद्गल सहु, तनधन मंदिर पेख; अविनाशी छे आत्मनो, धर्मज ज्ञाने लेख. पुद्गल प्रपंच कारमा, त्यां शुं सुखनी आश; पर आशाथी प्राणिया, थावे जगना दास. अंतरात्मा ध्यानथी, सेवो सत्य सदाय; शक्ति अनंती जेहनी, स्मरतां शिवसुख थाय. रमतां आत्मस्वरूपमां, पामे योगी सुख; पर पुद्गलमां जे रमे, पामे ते मन दु:ख. मन वच काया भिन्न छे, आत्मतत्त्व सुखकार; रत्यत्रयी- धाम छे, शुद्धरूप निर्धार. शुद्धरूप परमातमा, सत्ताथी परखाय; सेवो ध्यावो आत्मा, व्यक्तिभावे थाय. प्रेम भक्ति विश्वासथी, सेवो आत्म देव; आतम ते परमातमा, कीजे तेनी सेव. आत्मस्वभावे रमणता, सत्य चरण अवधार; गुण स्थानक आरोहवा, परपरिणति निवार. परपरिणतिना नाशथी, स्थिरता घटमां थाय; अखंड चिन्मय चेतना, शुद्धरूपता पाय. सारसार सहु ग्रंथy, सम्यक् चेतन ज्ञान; चेत्या तेमां जे रम्या, पाम्या शाश्वत स्थान. अनुभवज्ञाने ओळखे, ज्ञानी शिवपुर पंथ; निश्चय चरणे ते रम्या; सत्य थया निग्रंथ. भोग पंकमां लेपता, ज्ञानी कदा न पाय; जलपंकजवत् भिन्न ते, अंतरमांहि सदाय. अंतरवृत्ति आतमा, औदयिक भावे भोग; भोगवतां पण योगी जे, टाळे भवभय रोग. ॥१९॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सितम्बर-२०१७ ॥२८॥ ॥२९॥ श्रुतसागर बाह्यचरण चारित्रमां, एकान्ते नहि धर्म; आत्मज्ञान विना कदि, टळे न आठे कर्म. अंतरनुं चारित्र ते, चक्षु थकी न जणाय; दृश्य वस्तु पुद्गल सदा, चेतो आतमराय. अल्प समयमां साधिये, आत्मतत्त्व सुखकार; लहो भव्य शुद्धात्मने, परम तत्त्व अवतार. सिद्ध्या सिद्धे सिद्धशे, करी कर्मनो अंत; ते सहु आतम जाणीने, इम भाखे भगवंत. आत्मिक शुद्ध स्वभावना, उपयोगे छे धर्म; बुद्ध्यब्धि सुख शांतिथी, पामे शाश्वत शर्म. अनुभव बत्रीशी कही, गाम पोर दिन एक; विचरी आतम देशमां, पामी साची टेक. ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ प्राचीन साहित्य संशोधकों से अनुरोध श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं या किसी पूर्वप्रकाशित कृति का संशोधनपूर्वक पुनः प्रकाशन कर रहे हैं अथवा महत्त्वपूर्ण कृति का अनुवाद या नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, इसे हम श्रुतसागर के माध्यम से सभी विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादन कार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? यदि अन्य कोई विद्वान समान कृति पर कार्य कर रहे हों तो वे वैसा न कर अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों का सम्पादन कर सकेंगे. निवेदक- सम्पादक (श्रुतसागर) For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Awakening Acharya Padmasagarsuri Rajul, who was a woman of very great chastity, integrity and spiritual attainments gave him this advice. “Oh! great sage! you renounced all pleasures and luxuries along with your kingdom. No one desires to get back what he has discarded. The wish to get back what has been renounced is undesirable like wishing for what has been vomited. Moreover, it is a despicable desire. Hence, this kind of despicable action will not bring glory to you who are a sage”. When he heard this, the fire of his lust subsided; and having performed prayaschitta (some rituals of selfpurification) he again became absorbed in a deep penance (Tapasya). Such a lust once deprived Viswamitra of all his spiritual glory when he became infatuated with Menaka. The same thing happened in the case of Sutha and Upasutha. These two close friends, having attained extraordinary powers, by means of penances, desired to make Brahma, Vishnu and Maheswar kneel before them. When they were together, the two were equal to 22 warriors. Vishnu came to know of this. He appeared before them in the guise of Mohini. She displayed her beauty and charms. Forgetting all their spiritual attainments both the friends became infatuated with Mohini. Mohini said that she would accept whoever was mightier of the two. They had to show their strength only through a duel. In consequence, the two began to fight. At the end of the duel, one died. The power of the other dwindled to that of two from that of twenty two warriors. On account of this, Brahma, Vishnu and Maheswar escaped from defeat and disgrace. Hence lust is dreadful. The two purusharthas; Artha and Kama stand between Dharma and Moksha. This point demands deep consideration Artha and Kama should be struck with the (Ankusa) iron-hook of Dharma. Wealth remains with us if we utilize it for others. We can make our desires acquire nobility and elevation by transferring them from woman to mother; from mother to mentor and from mentor to the Lord. Thus desire becomes chastened and sublimated; and kama can be destroyed For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 10 सितम्बर-२०१७ with the iron-hook of Dharma. By means of Dharma, we can attain felicity in this world and the other world. Dharma gives us sense and wisdom. Some great kings and emperors of India renounced their artha and kama; and became detached, omniscient and all-seeing; and attained Nirvana. Hence of the four purusharthas, the place of Dharma is the first and foremost. The Pure Mind In the modern times, man himself has been alterng his ethical values. Today, a man's greatness is measured not by his nobility and humanity but by his wealth and worldly position. Akbar Ilahabadi says: नहि कुछ इसकी पुरसिश उल्फते अल्लाह कितनी है। सभी यह पूछते हैं आपकी तनखाह कितनी है। Nahi kuch isaki purasish Ulfathe Allah kithani hai, sabhi yah poochathe hai apki thanakah kithani hai. Nobody asks you how much devotion you have for God; on the other hand, all people ask you how much salary you are getting; and in this world you are honoured in proportion to your salary or wealth. People forget that man is the master of wealth. Actually, man is more valuable than money. Man should not surrender himself to wealth; on the other hand wealth should revolve round him. In the modern times, man is as much cheap as machines are dear. Everywhere, material wealth is predominant. Man, instead of being master of machines, has become a slave to them. People come by their cars to listen to discourses but if their cars go out of order on some day, they also take leave from the discourse. A car is after all a means. The listeners get glory by their heart-felt desire to hear discourses. Their cars do not bring them any glory. Those who realize this truth will attain the Purushartha of Dharma. Such people would refrain from violence as much as they can. They would regard non-violence as their highest dharma or duty. People who pursue the path of Dharma would never think of eating meat. There are people who visit holy places; listen to discourses; perform such rituals as Samayik (a Jain ritual) but secretly they eat meat. Among such people some begin eating meat as a matter of fashion; some eat meat to be called modern people and some eat meat to maintain friendship with meat-eaters. Some people become crazy for For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR September-2017 meat having fallen victims to the illusion that it increases their physical strength; and that it gives them longevity, but they forget that the elephant that eats only vegetarian food is many times stronger than the lion that eats flesh. A man can easily live for a hundred years by confining himself to vegetarian food. The life of a meat-eater grows insipid and dull because it is short and cruel. It has been said: पुरुषा वै शतायः (Purusha vai shatayuh) (Man lives for a hundred years) The main cause for this longevity is Indian culture. In the past, people used to consider premature death inauspicious. Their ideal was a life of peace and bliss devoid of sense attractions that cause perversities. How is it to-day? The present day life is replete with diseases and despairs. Worry burns man like the funeral pyre; disease burns man like fire; moreover, fear of other problems affects man's longevity. To achieve victory over fear we should surrender ourselves to God who is the giver of the boon of fearlessness. By this means, we can get both physical and mental felicity. We should rise above the level of a life of sensual pleasures and concentrate and meditate on God. From such a meditation we get wisdom, enlightenment, politeness, fearlessness and bliss and longevity. We should not render bitter whatever element of sweetness is there in our mind and in the five senses. We should be thankful for the good that is there in our mind and senses as a result of our good deeds in the past; and if we keep up the purity of mind and senses surely our physical and mental health will increase and bloom. Some believe that bodily welfare depends on mental welfare. Someone also said, “The life of a man whose mind is pure is heaven; and the life of a man whose mind is impure is hell.” The mind becomes impure on account of passions. There are four passions; anger, pride, illusion and deception. The mind that is free from these passions is pure. But purity by itself is not enough, Even pure water, if it is hot or saline or foul-smelling is unfit for drinking, Besides purity, there should be coolness, sweetness and however we can see four pure emotions namely, friendliness, joy, pity and objectivity in a pure mind. (Continue...) For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संवेग कुलक- एक वैराग्य प्रेरक रचना ___ गणिवर्य श्री सुयशचंद्रविजयजी प्राणिमात्रने संसारमा रखडावनार कोई अनिष्ट तत्त्व होय तो ते मोह छे. एथी ज उपमितिभवप्रपंचा कथाना रचयिता सिद्धर्षि गणि महाराजाए कषायोमां मोहने राजानी उपमा आपी छे. काम, क्रोध, लोभ जेवा तेना अनुचरो जीवने एक अथवा बीजी रीते कर्मना बंधन करावी संसार-सागरमां डूबाडे छे. ते मोह राजवीन सौथी लोभामणुं शस्त्र होय तो ते काम छे, जेणे मोटा - मोटा योगीपुरुषोने पोतानी जाळमां लपेटी क्षणमात्रमा धूळ चाटता करी दीधा छे. प्रस्तुत कृति मोह राजवीना ते शस्त्र पर विजय पामवा माटेनुं अमोघ शस्त्र छे जे-जे बाह्य अंगो पर जीव मोह पामे छे ते-ते अंगनुं अभ्यंतर-वास्तविक स्वरूप ज जीवना वैराग्यनुं प्रबळ कारण छे. कविए कुलकना प्रत्येक पद्यमां स्त्रीना जे-ते अंगोपांगनी वर्णनी साथे ते-ते अंगमां रहेली अशुचिनी वैराग्यप्रेरक वातो पण सरळ शब्दोमां रजू करी छे. कृतिकार कोण छे? कई संवतमां थया छे? तेनो काव्यमां कशो ज उल्लेख नथी, पण कृतिना भावो खरेखर अंत:करणमां वैराग्य उत्पन्न करे एवा छे. अहीं कृति अंगे विशेष न लखता अमे वाचकोना बोध माटे दरेक पद्यनी नीचे ज तेनो अनुवाद रजू को छे. संपादनार्थे प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत आपवा बदल पाटण हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानभंडारना व्यवस्थापकश्रीनो खूब खूब आभार. संवेग कुलक अबंभंमि अविरओ, पाएणं अरहा उ भावेइ। धी धी एसो मोहो, मोहिज्जइ जेण विउसो वि॥१॥ अब्रह्ममां तत्पर थयेलो सामान्य आत्मा प्रायः मोहना पाशमां आवी जाय छे. परंतु विद्वान अने पंडितजीव पण मोहनी जाळमां लपेटाई जाय छे. एवा मोहने धिक्कार हो. चम्मट्टिाहारुबद्धं, नारीणं कलेवरं असुइपुन्नं । धी धी जीवसहावो, रंजिज्जई जत्थ मोहंधो ॥२॥ नारीनुं शरीर चामडा, हाडकां, स्नायु विगेरेथी बनेलं अने लोही, मांस, परू, मूत्र विगेरे गंदकीथी भरेलुं छे ते छतां पण मोहांध जीव तेमां ज आनंद पामे छे, रच्योपच्यो रहे छे. खरेखर ! जीवना आ स्वभावने धिक्कार हो. For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir September-2017 SHRUTSAGAR धी लोअणाइं जाइं, इंदिवरदलसमाई कप्पेइं(इ)। मोहंधो एस जीओ, मंसस्स गोलया ते उ॥३॥ जे आंखोने मोहांध एवो जीव कमळपुष्पनी पांखडी समान माने छे ते आंखों वास्तविक पणे तो मांसना बे गोळा ज छे. आंखोने कमळपुष्पनी पांखडी समान माननार ते मोहांध जीवने धिक्कार हो. मन्निज्जइ सो अहरो, सव्वामयरससमूहनिम्मविओ। दीहागारेण ठिअं, मुणह तयं चम्मरखं पि॥४॥ आ होठने सर्व अमृतना समुहथी ज जाणे बनाव्या होय एवं तुं माने छे खरी रीते तो ते लांबो पथरायेलो चामडानो टूकडो ज छे एवं हे जीव ! तुं जाण. जे कुंदकलियवरयंति-सत्थहा मन्निया इमे दसणा। ते हड्डखंडमालं, पच्चक्खं मुणसु रे जीव ॥५॥ हे जीव ! जे आ दांतना समूहने तुं सफेद चमेलीना फूलोनी श्रेणिनी कांति जेवा उज्ज्वळ माने छे ते प्रत्यक्षपणे तो हाडकाना टूकडाओनी माळा ज छे, एवं तुं जाण. जं पि मुहं अइरम्मं, विसट्टकंदोदृसत्थहं कलिअं। तं पि गलंतय-लाला-करालियं किं न चिंतेसि ? ॥६॥ जे सुंदर एवा आ मुखने ते खीलेला नीलकमल जेवू मान्यु ते मुख पण तेमांथी टपकती एवी लाळथी विकृत ज छे, एवं तुं केम विचारतो नथी? निम्मलकंचणकलसुव्व, भाविआ जे पओअरा रुइरा। अविवेइणा जणेज(ण), तं भावसुं मंसगुरुपिंडा ॥७॥ अविवेकी मनुष्यो स्तनने निर्मळ सोनाना कळश जेवा मनोहर माने छे ते 'आ मांसना ज बे मोटा पिंड छे' एवो तुं विचार कर. जं उअरं अइसरु(रू)इरं, विभाविअंमोहमोहिणअमणेहि। तं असुइनिवहसंपूरिऑ, [जी|व ! किर कोठयं मुणह ॥८॥ मोहथी ग्रस्त थयेला मनवाळा जीवो स्त्रीना पेटने ‘अति मनोहर छे' एवं विचारे छे, पण हे जीव ! खरेखर तो ते पण गंदकीना समुहथी भरायेली [चामडानी] कोठी ज छे, एवं तुं समज. For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुतसागर 14 जावि कडी सुविशाला, मोहिज्जइ एस किर जीवो । सा हड्ड-चम्ममंसेहिं, निम्मिगा किं न भावेसि ? ॥९॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे आ विशाल केड(कमर)ने जोई जीवो मोह पामे छे ते केड पण वास्तविक पणे तो हाडका, चामडा अने मांसमांथी ज बनेली छे. एवो विचार तुं केम करतो नथी? जं पि वर(रं)गं नीसेसं(सं)-विसयरससुहसमुहि (मुइ) अं भणिअं । तं बीभच्छं असुइ-पवाहनिज्झरणमिह मुणसु ॥१०॥ सितम्बर-२०१७ स्त्रीनी जे योनीने तुं सर्वप्रकारे विषयसुखने योग्य कहे छे वस्तुतः ते पण अदर्शनीय घृणोत्पादक अने शरीरनी अंदर रहेली अशुचिनुं गलन (नीकळवानुं) स्थान छे, एवं तुं जाण. जाओ चिअ जंघाओ, कयलीथंभोपमाओ कलिआओ । चिंतिज्जं(ज्जइ) विवेइणा, इमाओ ताओ वि असुहाओ ॥११॥ स्त्रीनी जे जंघाने तुं केळवृक्षना स्तंभ जेवी माने छे तेने ज विवेकी मनुष्यो अशुभ [रूपे] माने छे. जं कणयकुंभसरिसा, पाया वरकामिणीण परिकलिता । तं(?) अट्ठिपंजरमया, जीव ! तुमं धरसु चित्तंमि ॥१२॥ हे जीव ! जे आ श्रेष्ठ एवी स्त्रीओना पगने अविवेकी मनुष्यो सुवर्णना कळश जेवा माने छे ते पण [खरेखर] हाडकानुं पांजरुं ज छे, एवं तुं हृदयमां विचार. इइ जं जं चिअकिंचिअ, कामिणिदेहंमि बालसुहजणयं । तं तं पंडिअ लोओ, भावइ संवेगरसठाणं ॥ १३॥ एवं तत्तसरूपं, इत्थीवरकलेवराण भावेउं । तव्विरऐसु च पुणो, बहुमाणं भावए हियए ।।१४।। आ प्रमाणे खरेखर स्त्रीओना शरीरने विषे बाळजीवोने किंचित् सुख आपनारा जे-जे अवयवो छे ते-ते सर्वने पंडित जनो वैराग्यनी उत्पत्तिनुं स्थान माने छे. For Private and Personal Use Only आ प्रमाणे स्त्रीना बाह्य(श्रेष्ठ) कलेवरनो अर्थात् अभ्यंतर देह स्वरूपनो विचार करीने हे जीव ! तुं ते स्त्रीओथी विरक्त थयेला जीवो प्रत्ये हृदयमां बहुमान भाव केळव. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्रीजिनलब्धिसूरि विरचित सामायिक बत्तीस दूषणकथन सज्झाय मुनि मेहुलप्रभसागर कृति परिचय श्रावक धर्म के बारह व्रतों में पांच अणुव्रत होते हैं । अणुव्रत यानि छोटी प्रतिज्ञा । जिनके पालन से जीव मर्यादा में आता हैं। तीन गुणव्रत होते हैं । गुणव्रत यानि जो अणुव्रतों के पालन में सहायक-उपकारक हो । चार शिक्षाव्रत होते हैं । शिक्षाव्रत यानि जिनके द्वारा धर्म की शिक्षा - अभ्यास किया जाय । चार शिक्षाव्रतों में पहला सामायिक व्रत है। आवश्यक सूत्र की गाथा ८५४ की मलयगिरि वृत्ति में सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार कही गई है समो रागद्वेषयोरपान्तरालवर्ती मध्यस्थः, इण् गतौ, अयनं अयो गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समायः -समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनिप्रवृत्तिः, समाय एव सामायिकम् । राग-द्वेष में मध्यस्थ रहना 'सम' है। सम यानि माध्यस्थ - भावयुक्त साधक की मोक्षाभिमुखी प्रवृत्ति सामायिक है। कहा भी गया है 'सामाइयं नाम सावज्ज-जोग-परिवज्जणं, निरवज्ज-जोग - पडिसेवणं च ।' अर्थात् सावद्य योगों का त्याग करना और निरवद्य योगों में प्रवृत्ति करना उसका नाम ‘सामायिक’। वैसे तो श्रावक के सभी बारह व्रत अपने आप में उत्कृष्ट हैं, पर सामायिक व्रत का महत्त्व सबसे अधिक है। जब तक हृदय में समभाव न हो, राग- -द्वेष की परिणति कम न हो तब तक कितना ही उग्र तप कर लिया जाय, उससे आत्म-शुद्धि नहीं हो सकती। अहिंसा आदि ग्यारह व्रत इसी समभाव से जीवित रहते हैं। श्रावक प्रतिदिन दो घडी यानि ४८ मिनट तक हिंसा, असत्य आदि पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग कर समभाव का अभ्यास करता है। For Private and Personal Use Only आवश्यक निर्युक्ति में सामायिक की विशद् विवेचना करते हुए बताया है कि सामायिक को विधि सहित ग्रहण करने पर श्रावक भी श्रमण के समान हो जाता है। अतः आध्यात्मिक उच्च दशा प्राप्त करने हेतु सामायिक को अधिक से अधिक करना चाहिए Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 श्रुतसागर सितम्बर-२०१७ सामाइअम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥८०२॥ श्रुतधरों ने सामायिक व्रत में मन-वचन-काया को संयमित रखने का उपदेश दिया है। फिर भी प्रमाद या असावधानीवश दूषण लग जाते हैं। स्थूल रूप में ये मन के दस, वचन के दस और काया के बारह दूषण कहे गये हैं। उन दोषों को जानकर साधक यथावसर दोष-सेवन से बच सकता है। अद्यावधि प्रायः अप्रकाशित प्रस्तुत रचना उन्हीं बत्तीस दोषों के विषय में है। इसे प्रतिक्रमण में सज्झाय के स्थान पर गाया जा सकता है। रत्नसंचय प्रकरण में बत्तीस दोषों का परिगणन इस प्रकार किया है। पल्हत्थी अथिरासण दिसिपरिवत्तिय कज्ज वटुंभे। अइअंगवग्गणागण आलस करकड मले कंडू ॥१९३॥ विस्सामण तह उंघण इय बारस दोसवज्जियं जस्स। कायसामाइय सुद्धं एगविहं तस्स सामइयं ॥१९४॥ कुव्वयण सहस्सकारो लोडण अहछंदवयण संखेवो। कलहो विग्गह हासो तुरियं च गमणागमणाइ ॥१९५॥ अविवेओ जसकित्ती लाभत्थी गव्व भय नियाणत्थी। संसय रोस अविणीओ भत्तिचुओ दस य माणसिया ॥१९७॥ बत्तीसदोसरहियं तणुवयमणसुद्धिसंभवं तिविहं। जस्स हवइ सामाइयं तस्स भवे सिवसुहा लच्छी ॥१९८॥ कर्ता परिचय 'खरतरगच्छ का बृहत् इतिहास' के अनुसार आचार्य श्री जिनवर्धनसूरिजी महाराज की पिप्पलक शाखा निकली। उस शाखा से विक्रम संवत् १५६६ में आचार्य श्री जिनदेवसूरि से आद्यपक्षीय शाखा निर्गत हुई। श्री जिनदेवसूरिजी के पट्ट पर जिनसिंहसूरि - जिनचंद्रसूरि - जिनहर्षसूरि - जिनलब्धिसूरि हुए। आचार्य जिनलब्धिसूरिजी महाराज का जन्म रायपुर नगर में दोसी गोत्रीय देदो साह की धर्मपत्नी दाडिमदे की रत्नकुक्षि से हुआ। विक्रम संवत् १७११ वैशाख वदि ११ के दिन धाडिवाल साह कर्मचंद कृत नन्दि महोत्सव में श्री जिनहर्षसूरिजी ने आपको अपने पाट पर स्थापित किया। आपका For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 17 September-2017 स्वर्गवास जोधपुर में विक्रम संवत् १७५४ के ज्येष्ठ वदि ११ के दिन हुआ। आपके पट्ट पर श्री जिनमाणिक्यसूरिजी महाराज बिराजे। ___ आपके द्वारा रचित कृतियों में नवकार माहात्म्य चौपई, मौन एकादशी स्तवन, दशवैकालिक सूत्र सज्झाय एवं दादा गुरुदेव के स्तवनादि प्रमुख हैं। संभवतः सभी कृतियाँ अद्यावधि अप्रकाशित हैं। प्रति परिचय ___ प्रस्तुत सामायिक बत्तीस दुषण सज्झाय की हस्तलिखित प्रति की प्रतिलिपि आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा से प्राप्त हुई है। उपरोक्त ज्ञानमंदिर में प्रस्तुत कृति प्रति संख्या ५९०३६ पर संग्रहित है। प्रति में १२ पंक्तियाँ प्रति पृष्ठ पर और २४ अक्षर प्रति पंक्ति में स्पष्ट वाच्य है। अक्षर मिलान हेतु राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के प्रति संख्या ३१२२५ का भी उपयोग किया गया है। संपादन हेतु प्रति की उपलब्धता के लिए संचालकों का हार्दिक आभार । प्रस्तुत कृति खरतरगच्छ साहित्य कोश में क्रमांक ४३६३ पर अंकित है। आचार्य श्रीजिनलब्धिसूरि विरचित सामायिक बत्तीस दूषणकथन सज्झाय ॥दोहा॥ भवियण उपगारह भणी, श्री जिणवर वर्धमान । पोण पुहर लगि उपदिसे, अद्भुत वाणि वखाण सामायक व्रत आदरो, कर मन वच दृढ काय । टालो दोष बत्तीस ए, जे सिद्धांत कहाय ॥ढाल १॥राजा राज करे जय नामे एहनी॥ सामायक व्रत सूधो धारो, वारो सगला दोषजी। सुर नर गति सुख भोगवि अनुक्रम, पालो अविचल मोखजी कोडि वरस अगन्यानी तप तपि, तोडे पाप नो नासजी। तितरेहीज एके सामायक, लाभ हुवै सुविलासजी कनककोडि इक दान ज दीजे, कीजै सोवन जिनगेहजी। अथवा इक सामायक लीजै, फल सम होय निसंदेहजी ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुतसागर 18 सुध श्रावक बारह व्रतधारी, समकित सुध सुभमन्नजी । पिण विण समता स्वाद न पावे, लुण पक्षे जिम अन्नजी गृहकारिज तजि ले सामायक, तास जनम सुप्रमाणजी । साधु सरीसो ते कहि श्रावक, ए श्रीजिनवर वाणिजी चंद किरण सम उज्जल जस तस, चंद्रजसा राजानजी । सामायक व्रत रे अनुभावे, तुरत थयो निरवाणजी बारह काय तणा तिहां दूषण, टालेवा सुजगीसजी । मनना दस तिम वयण तणा दस, ए दूषण बत्तीसजी सुभथानक पडिलेही सुभपरि, आगलि थापना मांडिजी । विधिपूर्वक सामायक लीजै, पंच प्रमादसुं छांडिजी गणभेदे विधि भेद अनंतो, तेहनी विधि न कहायजी । पिण निजगच्छ परंपरा जाणी, करवी सही चितलायजी पालगठी पूरी नवि बेसे, पहिलो दूषण एहजी । थिर आसण थापे नवि बीजे, अथिरासण नवि तेहजी चंचल दृष्टि चिहुं दिस राखे, चकित थयो जिम चोरजी । कारिज सावज वलि आरंभे, ए छे दोष अघोरजी अडकण लेइने नवि बैसे, व्रतधारी सुविवेकजी । नवलवधू परि अंग न गोपे, छट्ठो दूषण छेकजी आलस अंग मोडे सातमे, आठमे कडका त्यागजी । मैल उतारण नियम सु नवमे, दसमै खाज विभागजी सुख हेते न करे वीसामण, बारमे निद्रा नासजी । दूषण एह कायारा वरजे, सुध श्रावक सुविलासजी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ढाल २ ।। तिमरी पासै वडलुं गाम एहनी ॥ हिव दूषण दस वयणसुं टाले, सूधो सामायक व्रत पाले । कुवचन नवि भाखे मुख करीने, पहिलो दूषण निज मन धरिने अकस्मात अणचिंती वात, केलवी आल दीयै करि घात । बीजो दूषण एह संभारी, दूषण नवि दाखे व्रतधारी For Private and Personal Use Only सितम्बर-२०१७ ॥६॥ ॥७॥ 11211 11811 118011 ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ 118811 ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir September-2017 ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ SHRUTSAGAR कूड कलंक तणे परभावे, आतमा दुरगति मांहि गमावे। देखो विगूति रोहिणी नारी, कूडा आल तणि अधिकारी भाखे नवि मरषावय वाणी, दूषण तीजो मन मांहि जाणी। चौथे नवि वरतै निजछंदे, सूत संक्षेप कहे मति मंदे कलह करे जिण तिण संघाते, छट्ठो दूषण होय इण नाते। विकथा च्यार करै ऊमाई, सातमे दूषण दीधी साई हासो रामत केल कत्तूहल, वरजे आठमे थानिक अतिभल । पद संपद नवि राखे नवमें, गमणागमण ए दूषण दसमे ॥२२॥ ए दश दूषण वयण ना टाले, सूधो मन मांहि अरथ संभाले। मनना दूषण दस छे तिम वलि, पालेवा व्रतधर तिम वलि वलि ॥२३॥ ॥ढाल ३॥ इंद्र प्रसंसा सांभलीजी एहनी॥ ग्यांन अने किरिया भलीजी, ए बे साधन मोख। पिण जो न मिले एकठाजी, ते मोटो होये दोष ।। विचारी सामायक ग्रहि सार, भवसायर वूडंतडांजी, ए प्रवहण उणहार, _ विचारी सामायिक ग्रहि सार ।।२४।। ग्यांन विगर किरिया किसीजी, किरीया विण स्यों ग्यांन। अंध अने पंगुल तणोजी, इहां दृष्टांत प्रमाण विचारी सामायिक... ॥२५॥ किरिया विण तिरवो नहीजी, उत्तराध्ययन री साख। इण नाणी किरिया करेजी, तो हुवै मोल ज लाख विचारी सामायिक...॥२६।। नाण अधिक न लहे क्रियाजी, न आणे मन सुविवेक। तो उपजे दषण सहीजी, पहिलो मन रो एक विचारी सामायिक...॥२७॥ जसकीरति चाहें करेजी, सकल वरत उच्चार। तो हुई दूषण दूसरोजी, तीजे करे अहंकार विचारी सामायिक...॥२८॥ तप करि वंछे लाभनेजी, चौथो दूषण एह । ते तितरो फल तेहनोजी, नहीं परलोक प्रमाण विचारी सामायिक..॥२९॥ पूत कलत्र पररिद्धिनोजी, नीयाणो परलोक। करे न वंछे धरमने जी, सामायक तसु फोक विचारी सामायिक...॥३०॥ For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥३३॥ श्रुतसागर 20 सितम्बर-२०१७ अविनय भय आसातनाजी, संसय ने वलि रोस । टालेवा सामायकेजी, ए मन रा दस दोष विचारी सामायिक...॥३१॥ ॥ ढाल ४॥ तप ऊजमणो रे मुनिवर दाखवे एहनी॥ इण परि दोष बत्तीसे भाखीया, श्रीजिनवर वर्धमान । सामायक व्रत नर जे आदरै, तास जनम सुप्रमाण ॥३२॥ बारह व्रत सारीखा जिन कह्या, समता होड न होय । सूधी विध पालंता प्राणीयां, आतम तारक होय निरुपम पद पद संपद पामीये, समता भाव प्रसाद। इम जाणी ए व्रत भल संग्रहो, टाली सकल विखवाद ॥कलश॥ इम वीर जिणवर जगत हितकर जगतपति जगदीस ए। उपगार कारण दोष समता उपदिसे बत्तीस ए॥ सभ भाव भावे व्रत सामायक आणि मन भल आसता। इम कहे श्री जिनलबधिसूरिज ते लहे सुख सासता ॥ इति सामायक बत्तीस दूषण कथन सज्झाय ॥ ॥३४॥ ॥३५॥ क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं ? पुस्तकें भेंट में दी जाती हैं आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य तथा प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं की भेंट में आई बहमूल्य पुस्तकों की अधिक नकलों का अतिविशाल संग्रह है, जो हम किसी भी ज्ञानभंडार को भेंट में देते हैं. ___यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं तो यथाशीघ्र संपर्क करें. पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी. For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुस्तक समीक्षा श्रीमति जागृति प्रजापति पुस्तक नाम : व्युत्पत्तिदीपिकाभिधान-ढुण्ढिक्या समर्थितं सिद्धहेमप्राकृत व्याकरणम् संपादक : उपाध्याय श्री विमलकीर्तिविजय म.सा. प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि-अमदावाद प्रकाशन वर्ष : वि.सं.- २०७३(इ.स.- २०१७) भाग मूल्य : ६००/विषय : सिद्धहेमशब्दानुशासननां अष्टम अध्याय पर श्री उदयसौभाग्य गणि विरचित ढुंढिका वृत्तिनुं समीक्षात्मक संपादन. कलिकालसर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि रचित सिद्धहेमशब्दानुशासन नामथी विद्वज्जगतमां वळी कोण अजाण छे? ८ अध्याय, ३२ पाद अने ४६८५ सूत्रोमां गंथायेली आ रचना मात्र संस्कृत ज नहिं परंतु प्राकृत भाषानां व्याकरण ग्रंथोमां पण मोखरा- स्थान धरावे छे. संस्कृतव्याकरण माटे प्रारंभिक ७ अध्यायमां कुल ३५६६ सूत्रो छे, ज्यारे प्राकृतव्याकरण माटेनां आठमां अध्यायमां कुल १११९ सूत्रो छे. सिद्धहेमशब्दानुशासन पर अनेकविध नानी-मोटी रचनाओ घणां विद्वानो द्वारा रचयेली छे, जेमां स्वोपज्ञ लघु, मध्यम, बृहद्वृत्ति जेवी अन्यान्य रचनाओ समाविष्ट छे. तेमांनी एक छे ढुंढिका वृत्ति. संस्कृतव्याकरणनां सात अध्यायो परनी अज्ञातकर्तृक ढुंढिका वृत्ति पण उपाध्याय श्रीविमलकीर्तिविजयजी संपादित तथा कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि द्वारा वि.सं.- २०६५-७० दरमियान ७ भागोमां प्रकाशित थइ छे अने आठमां अध्यायनी ढूंढिका आशरे १५मी सदीमां थइ गयेल आचार्य श्री सौभाग्यसागरसूरिजीनां शिष्य गणि श्री उदयसौभाग्यजीए रची छे. प्रस्तुत ग्रंथ प्राकृत भाषानां विद्वानो माटे खूब महत्त्वपूर्ण छे. आचार्य श्रीविजयशीलचंद्रसूरिजी म.सा.नां शिष्यरत्न उपाध्याय श्री विमलकीर्तिविजयजीए For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर सितम्बर-२०१७ आचार्य विजयनेमिसूरीश्वरजी ज्ञानशाळा, खंभातनी प्रतने आदर्शप्रत तरीके राखी कुल १२थी पण वधु हस्तप्रतोनां आधारे संशोधन-संपादन कर्यु छे तेमां जेसलमेर, पाटण, कोबा विगेरे प्रसिद्ध ज्ञानभंडारोमां संग्रहीत प्रतोनो पण आ संपादन कार्यमां उपयोग कर्यो छे. आ वृत्तिमां सूत्रगत तमाम बाबतो पर विशद प्रकाश पाथरवामां आव्यो छे. तेमां नियमोनी स्पष्टता माटे ढगलाबंध उदाहरण-प्रत्युदाहरण सुचारु पद्धतिथी करेल छे. जेनाथी प्राकृत व्याकरण- अध्ययन करनार-करावनारने सुगमता रहे, ग्रंथ प्रत्ये रुचि वधे तेवा आशयथी कृतिनुं संपादन कर्यु छे. प्रथम भागमा उपाध्याय श्री विमलकीर्तिविजयजीए ग्रंथनी संपादन पद्धति विषयक परिचय आपेल छे, उपरांत प्रस्तावना अंतर्गत “प्राकृतव्याकरण क्षेत्रे एक सु-संस्कृत कार्य”मां प्राकृतव्याकरणनो सामान्य परिचय आप्यो छे. त्यारबाद ग्रंथमां उपयुक्त सांकेतिक शब्दो अने प्रारंभिक ३ पादनो समावेश कर्यो छे. ____बीजा भागमां अंतिम ४थो पाद अने अंतमां विविध प्रकारना ९ परिशिष्टो आपेल छे. परिशिष्ट-१मां संपादनोपयुक्त ग्रंथोनी सूचि, परिशिष्ट-२ अंतर्गत पादानुसार मूलसूत्रोनी सूचि, परिशिष्ट-३मां मूलसूत्रोनी अकारादिक्रम प्रमाणे सूचि, परिशिष्ट४मां संक्षिप्त विषयानुक्रम, सूत्रसंख्या अने साथे चतुर्थपादमां समाविष्ट महाराष्ट्रीय, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची अने अप्रभंश संबंधी सूत्रनी सूचि, परिशिष्ट-५मां ४६ आर्षप्रयोग, परिशिष्ट-६मां प्राकृतव्याकरणान्तर्गत प्रयोजायेलां उदाहरणोनी अकारादिक्रम प्रमाणे सूचि, परिशिष्ट-७मां प्राकृतव्याकरणमां समाविष्ट श्लोको तथा वाक्योनी सूचि, परिशिष्ट-८ अंतर्गत 'देशीशब्दकोश', 'देशीशब्दसंग्रह, 'पाईअसद्दमहण्णवो, 'अपभ्रंशव्याकरणम्' वगेरे ग्रंथोना आधारे देशी शब्दोनी अकारादि क्रमानुसार सूचि तथा परिशिष्ट-९ 'चतुर्थपादान्तर्गत धात्वादेशा' मां अकारादिक्रम प्रमाणे देशीधातुओना अर्थोनो उल्लेख ‘पाइअसद्दमहण्णवो'ना आधारे विस्तृत सूचि आपी छे. आम, उपाध्यायजीए ९ परिशिष्टोमां विविध महत्त्वपूर्ण सूचनाओनो संग्रह कर्यो छे. सर्वतो दृष्टिए प्रस्तुत ग्रंथ प्राकृत भाषानां अभ्यासुओ, साधु-साध्वीजी भगवंतो, संशोधको तथा भाषाकीय विद्वानो माटे खूब ज उपयोगी ग्रंथ छे. For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमण भगवान महावीरस्वामी पछीना एक हजार वर्षनी गुरु परंपरा मुनिश्री न्यायविजयजी ८. आर्य महागिरिसूरि अने आर्य सुहस्तिसूरि आर्य महागिरिनो वधु परिचय नथी मळतो. तेओ एलापत्य गोत्रनां हता. तेमणे ३० वर्षनी वये स्थूलिभद्रजी पासे दीक्षा लीधी हती. ४० वर्ष गुरुसेवामां अने ३० वर्ष युगप्रधानपदे रही बराबर १०० वर्षनी वये वी.सं. २४५मा स्वर्गवासी थयां. तेओ मुख्य पट्टधर अने गच्छनायक होवा छतां पोते जिनकल्पनी तुलना करतां होवाथी गच्छनी व्यवस्था अने संभाळ तेमनां नानां गुरुभाई आर्य सुहस्तिसूरि करतां हतां. आ कारणे ज एक पाटे बे आचार्यो थयां. तेओ परम त्यागी अने एकान्तप्रिय होवाथी गच्छनी सारसंभाळy काम आर्य सुहस्तिसूरिने माथे हतुं. आर्य महागिरिजीनां समयमां नीचे प्रमाणे चोथा अने पांचमा निह्नवो थयां : वी.सं. २२०मां आर्य महागिरिजीनां शिष्य कौडिन्यनां शिष्य अश्वमिने 'सामुच्छेदिक मत (शून्यवाद) स्थाप्यो एटले ते चोथो निह्नव गणायो. अने वी.सं. २२८मां तेमनां शिष्य धनगुप्तनां शिष्य गंगदत्ते 'द्विक्रिय' मत स्थाप्यो एटले ते पांचमो निह्नव गणायो. आ बन्ने निह्नवोनां मतो लांबो समय चाल्यां नहिं. तेमनां मतनुं अस्तित्व लोपाइ गयु अने पछीनां केटलाक निह्नवोनां मत बीजामां भळी गयां. आर्य सुहस्तिसूरिनो पण विशेष परिचय नथी मळतो. 'परिशिष्ट पर्व'मां लख्यु छे के आर्य महागिरिजी तथा आर्य सुहस्तिजी बन्ने बाल्यावस्थामां साध्वीजी द्वारा पालित-रक्षित थयां हतां. जुओः तौ हि यक्षार्चया बाल्यादपि मात्रेव पालितौ। इत्यार्योपपदौ जातौ महागिरिसुहस्तिनौ ॥ पर्व-१०, श्लो.३७ । तेओ मालवदेशनी राजधानी उज्जयिनीमां चातुर्मास रह्यां हतां त्यारे तेमणे भद्रा शेठाणीनां पुत्र अवंतिसुकुमारने प्रतिबोधी दीक्षा आपी हती. अवन्तिसुकुमारे दीक्षा लीधी ते ज दिवसे स्मशानमां अनशन कर्यु अने ए ज राते शीयाळणीए तेमने पोतानुं भक्ष्य बनाव्या. पाछळथी तेमनी माताए पण वहुओ साथे दीक्षा लीधी. अवन्तिसुकुमार मरण पामी नलिनीगुल्म विमानमां देव थयां. केटलाक वर्ष पछी अवन्तिसुकुमारनां For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 24 श्रुतसागर सितम्बर-२०१७ पुत्रे पोतानां पितानां स्वर्गवासस्थाने अवन्तिपार्श्वनाथनुं भव्य मंदिर बंधाव्यु. स्थाने स्ववप्नुस्त्रिदिवंगतस्य व्यधादवन्तिसुकुमालसूनुः । नाम्ना महाकाल इतीह पुण्यपानीयशालामिव सर्वशालाम् ॥ (हीरसौभाग्यकाव्य, सर्ग-४, श्लो.४२) आ उपरांत आर्य सुहस्तिजीए सम्राट अशोकनां पौत्र अने भावी भारतसम्राट संप्रतिने युवराज अवस्थामा ज प्रतिबोधी जैनधर्मी बनाव्यो हतो. भारतसम्राट् बन्या पछी पण संप्रतिए जैनधर्मनुं श्रद्धापूर्वक पालन करी भारतमां अने भारत बहार जैनधर्मनो प्रचार कर्यो हतो. संप्रतिनुं १०० वर्षतुं आयुष्य हतुं अने जैनधर्म स्वीकार्या पछी तेने रोज एक जिनमंदिर बंधाववानी प्रतिज्ञा हती. तेणे सवा लाख जिनमंदिरो, छत्रीस हजार मंदिरोनो जीर्णोद्धार, सवाकरोड जिनबिंब, पंचाणु हजार धातु प्रतिमाओ अने सातसो दानशाळाओ करावी हती. तेणे सूरिजीनां उपदेशथी अनेक तीर्थोनो जीर्णोद्धार कराव्यो हतो अने केटलाक स्थळे नवां मंदिरो बंधाव्यां हतां. संक्षेपमां तेणे नीचे प्रमाणे सुकार्यो कराव्यानो उल्लेख मळे छेः शकुनिविहारनो जीर्णोद्धार कराव्यो. मरुदेशमां धांधणी नगरमां पद्मस्वामीनु, पावगढमां संभवनाथY, हमीरगढमां पार्श्वनाथ, इलोरगिरिमां नेमिनाथ, पूर्व दिशामां रोहीशनगरमां सुपार्श्वनाथनु, पश्चिममां देवपत्तनमानु, इडरगढमां शांतिनाथर्नु मंदिर बंधाव्यु. तेणे सिद्धाचळ, सीवंतगिरि(समेतशिखर ?), गिरनार, शंखेश्वर, नंदीय (नांदीया, ज्यां जीवितस्वामीनी मुर्ति छे.) बामणवाडा आदि स्थानोनी संघ साथे यात्राओ करी हती. त्यां रथयात्राओ पण करी हती. कमलमेर पर्वत उपर संप्रतिए बंधावेलुं जिनमंदिर विद्यमान छे, एम “टांड राजस्थान”मां उल्लेख छे. ते वखते जैनोनी संख्या करोडोनी हती. निराधार, गरीब, अनाथ अने निर्दोष प्राणीने कोई न मारे ते माटे संप्रतिए फरमान काढ्यां हतां. वळी ते वखतनां साधु समुदायने एकत्रित करी जैनधर्मनां प्रचार माटे जुदां-जुदां प्रदेशोमां साधुओनां विहारनी सगवड करी आपी हती. आर्य सुहस्तिजी वी.सं. २९१मां स्वर्गवासी थयां अने ते पछी बे ज वर्षे वी.सं. २९३मां संप्रतिनो स्वर्गवास थयो. सुधर्मास्वामीथी लइने आर्यसुहस्ति सुधी निर्ग्रन्थगच्छ कहेवायो. For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 25 September-2017 SHRUTSAGAR ९. सुस्थितसूरि अने सुप्रतिबद्धसूरि ___ आ बन्ने आचार्यो एक ज गुरुनां शिष्य अने व्याघ्रापत्य गोत्रनां छे. बन्नेए उदयगिरि, खंडगिरिनी गुफामां करोडवार सूरिमंत्रनो जाप को हतो तेथी निर्ग्रन्थगच्छनुं बीजु नाम कोटिकगच्छ पड्यु. 'आ गच्छनो परिचय हीरसौभाग्य(सर्ग-४ श्लो.४४)मां आ प्रमाणे छे: प्रीतिं सृजंति पुरूषोत्तमानां दुग्धाम्बुराशेरिव पद्मवासा। हृदाजिनं बिभ्रत आविरासीत् तत्सूरियुग्मादिह कौटिकाख्यः॥ आ सूरिमहाराजे ज्यां जाप को हतो ते स्थाने महामेघवाहन राजा खारवेले एक स्थान बनावी त्यां शिलालेख कोतराव्यो हतो. सुस्थितिसूरि वी.सं. ३७२मां स्वर्गवासी थयां. आ समये आर्य खपुटाचार्य विद्यमान हतां. 1. आर्य महागिरिजीना बीजा शिष्यो बहुल अने बलिस्सह थया. तेमां बलिस्सहना शिष्य उमास्वाति वाचक थया. तेमणे तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, प्रशमरति, श्रावकप्रज्ञप्ति आदि पांचसो प्रकरणो रच्यां हतां. तेमना शिष्य श्यामाचार्यजी थया. तेमनुं बीजुं नाम कालिकाचार्य हतुं अने तेमणे इंद्रने निगोदनुं स्वरूप समजाव्युं हतुं. तेमणे पन्नवणा सूत्र रच्यु हतुं. तेओ वीरनि. सं. ३७६ मां स्वर्गे गया. तेमना शिष्य सांडिल्प थया, जेमणे जीतमर्यादा रच्युं हतुं. 2. महामेघवाहन राजा खारवेल, महाराजा मेडानो वंशज हतो. नंदराज ऋषभदेवनी जे सुवर्ण प्रतिमा लई गयो हतो तेने ते पुष्यमित्रना समयमां तेने हरावी कलिंगमां पाछी लाव्यो हतो अने तेनी कुमारगिरि पर्वत उपर आर्यसुस्थितसूरि पासे प्रतिष्ठा करावी हती. तेना वखतमां बार दुकाळ पडवाथी आगमज्ञान नष्ट थतुं जोइ दुकाळ उतर्या पछी ते वखतना प्रसिद्ध आचार्यो-आर्य सुस्थितसूरि, सुप्रतिबद्धसूरि, बलिस्सह, बोधिलिंग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षावाचार्य, उमास्वाति, श्यामाचार्य वगेरे कुल पांचसो साधुओ; आर्या पोईणी वगेरे सातसो साध्वीओ, कलिंगराज, भिक्षराज, सीवंद, चूर्णक, सेलक वगेरे श्रावको; कलिंक महाराणी पूर्णमित्रा आदि सातसो श्राविकाओ : एम चतुर्विध संघे भेगा मळी पूर्वधरोए आगमज्ञान संग्रा. आ रीते आ राजा द्वादशांगीनो संरक्षक बन्यो. खारवेल वीरनि. सं. ३३० मां स्वर्ग गया पछी तेनो पुत्र वक्रराय पण जैनधर्मी थयो. ते वीरनि.सं. ३६२ मां स्वर्गे गयो. तेनो पुत्र विदरराय पण जैनधर्मी हतो. “हिमवंत थेरावली”ना उल्लेख प्रमाणे ते वीरनि. सं. ३७२ मां स्वर्गे गयो. खारवेलनो हाथीगुफानो लेख प्रगट थइ गयो छे. 3. आर्य खपुटाचार्यना समय माटे मतभेद छे. 'वीरवंशावली' अने ‘तपागच्छ पट्टावली'मां तेमने आर्य स्थितसरिजीना समयमां बताव्या छे. उपाध्याय धर्मसागरजी तेओ वीरनि.सं. ४५३ मां थयानं लखे छे. 'प्रभावक चरित्र मां वीरनि.सं.४८४नो उल्लेख छे. तेओ महाप्राभाविक आचार्य हता. 'प्रभावक चरित्र'मां तेमने पादलिप्ताचार्यना विद्यागुरू तरिके वर्णव्या छे. 'निशीथचूर्णि'मां तेमने विद्यासिद्ध तरीके वर्णव्या छे. पाटलीपत्रनो राजा दाहड जे जैन साधओने हेरान करतो हतो तेने तेमणे योग्य शिक्षा आपी जैनधर्मी बनाव्यो हतो. (विशेष माटे ‘प्रभावक चरित्र’ जोवू) For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 26 सितम्बर-२०१७ १०. इंद्रदिन्नसूरि आमनो वधु परिचय नथी मळतो. वी.सं.नी पांचमी शताब्दीना आ महाप्रतापी जैनाचार्य थया. एमना समकालीन बीजा केटलाय प्रसिद्ध आचार्यो थया छः वी.सं.४५३मां गर्दभिल्लनो नाश करावनार कालिकाचार्य, उ. धर्मसागरजीना मत प्रमाणे आर्य खपुटाचार्य; वी.सं.४६७मां आर्यमंगु, वृद्धवादीसूरि, सिद्धसेन दिवाकर, पादलिप्तसूरि वगेरे. इंद्रदिन्नसूरिजीना नाना गुरूभाइ प्रियग्रंथसूरि थया. तेमणे अजमेर पासेना हर्षपुर नगरना ब्राह्मणोने प्रतिबोधी यज्ञमां थतो बकरानो बलि बंध कराव्यो हतो अने जैनशासननी प्रभावना करी हती. तेओ काश्यप गोत्रना हता. विशेष माटे जुओ कल्पसूत्र सुबोधिका. वीर वंशावलीमां' पण संक्षिप्त परिचय मळे छे. कालकाचार्य संबंधी खुलासो - आ नामना चार आचार्यो थया ते आ प्रमाणे : १. इंद्रप्रतिबोधक, प्रज्ञापनासूत्रना कर्ता अने जे श्यामाचार्यना नामथी प्रसिद्ध छे ते कालिकाचार्य वी.सं.३२० थी ३३५ सुधीमां थया. २. अविनीतशिष्यत्यागी, आजीविको पासे निमित्त शास्त्रनुं अध्ययन करनार, गर्दभिल्ल राजानो नाश करावनार, इंद्रना प्रश्नना उत्तरदाता-इंद्रने निगोदनुं स्वरूप समजावनार, पांचमना बदले चोथनी संवत्सरी प्रवर्तावनार कालिकाचार्य, जेमनो उल्लेख उपर करवामां आव्यो छे ते. तेओ खपुटाचार्य अने पादलिप्तसूरिजीना समकालीन हता. तेमणे पंजाबमां भावडागच्छ स्थाप्यो हतो. तेओ वी.सं.४५३मां थया. ३. विष्णुसूरिजीना शिष्य कालकाचार्य. ४. देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणना समकालीन, भूतदिन्नसूरिजीना शिष्य, माथुरी वाचनामां सहायक, आनंदपुरमां सभासमक्ष-चुतर्विधसंघ समक्ष चोथना दिवसे कल्पसूत्रनुं वाचन शरू करनार आ कालिकाचार्य वी.सं.९८०मां, वाचना भेदथी ९९३मां थया. (उत्तराध्ययन नियुक्ति; विचारश्रेणि, रत्नसंचय प्रकरण, कालसप्ततिका, पट्टावली समुच्चय पृ.१९८ना आधारे.) इंद्रदिन्नसूरिना समकालीन उपर लखेल आचार्योनो ढूंक परिचय आ प्रमाणे छे : आर्यमंगु-नंदीसूत्रनी गुर्वावलीना लखवा प्रमाणे तेओ आर्य समुद्गना शिष्य हता. तेओ वी.सं.४६७मां थया. जिनप्रभसूरि मथुराकल्पमां तेमना माटे लखे छे के For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 27 SHRUTSAGAR ___September-2017 “अहीं (मथुरामां) श्रुतसागरना पारगामी आचार्य आर्यमंगु ऋद्धिशातागारवमां लुब्ध बनी यक्षपणुं पाम्या अने जीभ बहार काढीने साधुओने अप्रमादी थवानो उपदेश आप्यो. ('जैन सत्य प्रकाश'मांनो मारो 'मथुराकल्प'नो लेख) वृद्धवादीसूरि अने सिद्धसेन दिवाकर आ बन्ने गुरू-शिष्यनां चरित्र बहु प्रसिद्ध छे. विशेष परिचय माटे 'प्रभावक चरित्र'मांनो वृद्धवादीसूरि प्रबंध, चतुर्विंशति प्रबंध, प्रबंधचिंतामणि वगेरे जोवां. तेमनो ढूंक परिचय आ प्रमाणे छः वृद्धवादीसूरि गृहस्थदशामां गौडदेशमां कोशल गामना रहेवासी मुकुन्द नामक ब्राह्मण हता. तेमणे वृद्धावस्थामा स्कन्दिलाचार्य पासे दीक्षा लीधी हती. गुरूना स्वर्गवास पछी तेओ आचार्य बन्या अने तेमणे उज्जयिनी तरफ विहार कर्यो. मार्गमां देवश्रीनो पुत्र ‘सिद्धसेन' पंडित मळ्यो. वादमां तेने जीती 'कुमुदचंद्र' नामनो पोतानो शिष्य बनाव्यो. जैनशास्त्रोना पूरा अभ्यास पछी वृद्धवादीसूरिए कुमुदचंदने आचार्य पद आपी पूर्व- सिद्धसेन नाम राख्यु. पाछळथी तेओ सिद्धसेन दिवाकर तरीके ख्यात थया. सिद्धसेन दिवाकरे राजा विक्रमादित्यने प्रतिबोधी जैन बनाव्यो हतो. तथा राजा देपालने पण प्रतिबोध्यो हतो. तेमणे कल्याणमंदिर स्तव, सन्मतितर्क नामनो महान दर्शनग्रंथ, बत्रीश बत्रीशीओ, न्यायावतार आदि ग्रंथो रच्या हता. तेमणे उज्जयिनीमां अवंति पार्श्वनाथने प्रगट करी जैनशासननी प्रभावना करी हती. पादलिप्तसूरि ____ आमना समय माटे भिन्न-भिन्न मत छे. उपा. धर्मसागरजीए तपगच्छ पट्टावलीमां तेमने इन्द्रदिन्नसूरि साथे मूक्या छे, वीरवंशावली अने तपागच्छ पट्टावलीमां वज्रस्वामी साथे मूक्या छे. तेमनो जन्म कोशलपुर (अयोध्या)मां विजयब्रह्मराजाना राज्यकाळमां कुल्ल श्रेष्ठीने त्यां थयो हतो. तेमनी मातानु नाम प्रतिमा अने तेमनुं नाम नागेन्द्र हतुं. तेमणे आर्य नागहस्ती पासे ७ वर्षनी वये दीक्षा लीधी हती. १० वर्षनी वये तेओ आचार्य बन्या, अने पादलिप्तसूरि तरीके ओळखावा लाग्या. तेओ महाविद्यासिद्ध हता. आकाशगामिनी विद्याना बळे तेओ. रोज शलुंजय, गिरनार, For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर सितम्बर-२०१७ समेतशिखर, नदीयामांना जीवितस्वामी तथा बामणवाडा, ए पांच तीर्थनी यात्रा कर्या पछी ज आहार करता. तेमणे पाटलीपुत्रना राजा मुरूंडने प्रतिबोध्यो हतो, अने प्रतिष्ठान पुरना राजा सातवाहनने पोताना पांडित्यथी आको हतो. पाटलीपुत्रमां जैन श्रमणोने थतो उपद्रव तेमणे निवार्यो हतो. तेमणे निर्वाणकलिका, प्रश्नप्रकाश, कालज्ञान, तरंगलोला महाकाव्य, चंपु वगेरे ग्रंथो रच्या हता. तथा वीरप्रभुनी स्तुतिरूप 'गाहाजुअलेण' स्तोत्र बनाव्यु छे के जेमां सुवर्णसिद्धिनो आम्नाय होवानुं मनाय छे. तेमने नागार्जुन नामक विद्यासिद्ध शिष्य हतो. तेणे गुरूकृपाथी आकाशगामिनी विद्या मेळवी हती. कांतिपुरथी पार्श्वप्रभुनी प्रतिमा शेढी नदीना तीरे लावी तेनी समक्ष रसनु स्तभन करवाथी ए प्रतिमा स्तंभन पार्श्वनाथ तरीके ख्यात थइ. नागार्जुने पोताना गुरूनुं नाम अमर करवा शनुजयनी तळाटीमां पादलिप्तपुर (वर्तमान पालीताणा) वसाव्यु जे अद्यावधि विद्यमान छे. पादलिप्तसूरि शत्रुजय उपर ३२ उपवासनुं अनशन करी स्वर्गे गया. ११. आर्य दिन्नसूरि __ आमनो विशेष परिचय नथी मळतो. तेओ गौतमगोत्रना हता. कर्णाटकमां विचरी तेमणे घणो उपकार को हतो. तेओ हमेशां एक वखत ज आहार लेता. तेमने छये विगय (विकृति)नो सर्वथा त्याग हतो. वीरवंशावलीकारना लखवा प्रमाणे तेमना समये चंदेरीनगरीमां साधुना शवने अग्निदाह देवानी प्रथा शरू थइ. आ वात परंपराना आधारे जणावी छे. तेओ वीरनि. सं.नी पांचमी सदीना उत्तरार्धमां थया. १२ आर्य सिंहगिरिसूरि इंद्रदिन्नसूरिनी पाटे आ आचार्य थया. तेमनुं गोत्र कोशीय हाँ, तेमने जातिस्मरण ज्ञान थयु हतुं. तेमने मुख्य चार शिष्यो हताः १ धनगिरिजी, २ वज्रस्वामी, ३ आर्यसमित सूरि अने ४ आर्य अरिहदिन्न. आ चारे महाविद्वान अने प्राभाविक हता. आ आचार्य महाराजनो वी.सं.५४७-४८मां स्वर्गवास थयो. तेमना समयमां वी.सं.५४४मां रोहगुप्त नामनो छठ्ठो निह्नव थयो. धनगिरिजी वज्रस्वामीना संसारी पिता हता एटले तेमनो परिचय वज्रस्वामीना परिचयमां आवशे. (क्रमशः) For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाचार सार राष्ट्रपति महामहिम श्री राम नाथ कोविन्दजी के करकमलों से कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची, भाग-23 का विमोचन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में संग्रहित प्राचीन व दुर्लभ पांडुलिपियों का विस्तृत सूचीपत्र तैयार किया जा रहा है. इसके अन्तर्गत अबतक १ से २२ भागों का प्रकाशन किया जा चुका है. वर्त्तमान में मात्र जैनकृतियों का सूचीकरण किया जा रहा है, भविष्य में वेद, पुराण, ज्योतिष, आयुर्वेदादि अन्य शास्त्रों के सूचीकरण की भी योजना है. इसी क्रम में दि. ०३-०९-२०१७ रविवार को प. पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के ८३वें जन्मोत्सव गुरू आशिष महापर्व के पावन अवसर पर श्री सीमन्धरस्वामी जिनमन्दिर, महेसाणा के प्रांगण में चतुर्विध श्रीसंघ की उपस्थिति में भारत के वर्त्तमान राष्ट्रपति महामहिम श्री राम नाथ कोविन्दजी के करकमलों से कैलास श्रुतसागर ग्रन्थसूची के २३वें भाग का विमोचन सम्पन्न हुआ. इस शुभ अवसर पर गुजरात के राज्यपाल महामहिम श्री ओ.पी. कोहली, मुख्यमन्त्री श्री विजयभाई रूपाणी तथा उपमुख्यमन्त्री श्री नितिनभाई पटेल ने भी अपना बहुमूल्य समय देकर इस प्रसंग की शोभा में अभिवृद्धि की. देश विदेश से पधारे हुए परमपूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यश्री के हजारों गुरुभक्तों ने इस प्रसंग पर उनका आशीर्वाद ग्रहण किया व पूज्यश्री के वचनामृत का लाभ लिया. ध्यातव्य है कि संस्था के द्वारा प्रकाशित होनेवाले सूचीपत्रों में राष्ट्रपति श्री के करकमलों से विमोचन होनेवाला यह प्रथम सूचीपत्र है. यह आह्लादक क्षण हमारे लिए अत्यन्त गौरवपूर्ण व उत्साहवर्द्धक है. सर्वविदित है कि कैलास श्रुतसागर ग्रन्थसूची के प्रथम भाग का विमोचन वर्ष २००३ में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री व भारत के वर्त्तमान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्रभाई मोदीजी के करकमलों से कोबातीर्थ में हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हुआ था. दोनों ही प्रसंग अपने आपमें महत्त्वपूर्ण व चिरस्मरणीय रहेंगे. यह ऐतिहासिक क्षण संस्था के लिए प्रेरणादायी व हर्षप्रद सिद्ध होगा. “राष्ट्रसन्त” बने “राष्ट्रनिर्माता” श्री सीमन्धरस्वामी जिनमन्दिर, महेसाणा के प्रांगण में चतुर्विध श्रीसंघ की उपस्थिति में दि. ०३-०९-२०१७ रविवार को प. पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. का ८३वाँ जन्म महोत्सव गुरू आशिष महापर्व के रूप में हर्षोल्लासपूर्वक मनाया गया. इस पुनीत अवसर पर भारत के वर्त्तमान राष्ट्रपति महामहिम श्री राम नाथ कोविन्दजी, गुजरात के राज्यपाल श्री ओ.पी. कोहलीजी, मुख्यमन्त्री श्री विजयभाई रूपाणी तथा उपमुख्यमन्त्री For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 30 सितम्बर-२०१७ श्रुतसागर श्री नितिनभाई पटेल, दीव दमण के प्रशासक श्री प्रफुल्लभाई पटेल व अहमदाबाद के एम.एल.ए श्री राकेशभाई शाह ने भी उपस्थित रहकर इस समारोह की शोभा बढ़ाई. इस अवसर पर भारत के राष्ट्रपति महामहिम श्री राम नाथ कोविन्दजी के करकमलों से कैलास श्रुतसागर ग्रन्थसूची के २३ वें भाग का विमोचन भी सम्पन्न हुआ. गुजरात के राज्यपाल महामहिम श्री ओ.पी. कोहली, मुख्यमन्त्री श्री विजयभाई रूपाणी तथा उप मुख्यमन्त्री श्री नितिनभाई पटेल ने जनसमूह को सम्बोधित किया. महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा कि “आचार्यश्री के साथ मेरा पुराना सम्बन्ध व घनिष्ठ परिचय रहा है. इनके द्वारा किए जा रहे लोकोपकार के कार्यों को देखते हुए मुझे लगता है कि राष्ट्रसन्त के साथ-साथ ये राष्ट्रनिर्माता भी हैं.” ज्ञातव्य है कि भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. नीलम संजीव रेड्डी द्वारा वर्ष १९७८ में मुंबई के राजभवन में पूज्य आचार्यश्री को “राष्ट्रसन्त” की उपाधि से विभूषित किया गया था तथा वर्ष २०१७ में गुजरात के महेसाणा की धरती पर इन्हें वर्त्तमान राष्ट्रपतिश्री के द्वारा “राष्ट्रनिर्माता” के गौरवपूर्ण विशेषण से अलंकृत किया गया. इस अवसर पर मुमुक्षु श्री विराजकुमार की दीक्षा दि. २९ नवम्बर २०१७ को श्री महुडी तीर्थ में व श्री मनोजभाई मूथा की दीक्षा दि. २७ जनवरी २०१८ को अहमदाबाद में होना तय हुआ. गुरुभक्त श्री मनीषभाई मेहता द्वारा रिटायर्ड सैनिकों के फण्ड में ६३ लाख रुपये भेंटस्वरूप दिए गए. प. पू. गुरु भगवन्त का आगामी चातुर्मास भायंदर, मुम्बई के लिए जय बुलाई गई. पूज्य आचार्यश्री के जन्मदिवस के इस मांगलिक अवसर पर दूर- सुदूर से पधारे हुए अतिथिगण तथा आचार्यश्री के भक्तों ने पूज्यश्री को जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ दी तथा उनसे आशीर्वाद ग्रहण किये. हजारों भक्तों के समक्ष मंच पर विराजमान राष्ट्रसन्त और राष्ट्रपति का युगल दर्शन मनमोहक प्रतीत हो रहा था. प. पू. गणिवर्य श्री प्रशान्तसागरजी म. सा. के मार्गदर्शन में सम्पूर्ण कार्यक्रम का आयोजन श्री सीमन्धर जिनमन्दिर पेढी ट्रस्ट तथा श्रीसंघ महेसाणा के द्वारा किया गया. इस कार्यक्रम में श्री दिलीपभाई, श्री जितेन्द्रभाई, श्री सेजलभाई, श्री निसर्गभाई शाह, श्री विपुलभाई मणियार, श्री परागभाई दोशी तथा श्री हिरलभाई शाह का प्रसंशनीय योगदान रहा. देश-विदेश से पधारे अतिथियों के लिए आवास एवं भोजन की अतिसुंदर व्यवस्था की गई थी. For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरु आशिष महापर्व की झलक राष्ट्राचार्यदेव राष्ट्रपति महामहिम श्री राम नाथ कोविन्दजी के साथ चर्चा करते हुए प.पू.आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. राष्ट्रपति महामहिम श्री राम नाथ कोविन्दजी के करकमलों में कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची अर्पित करते हुए ग्रंथसूची के मुख्य दाता श्री सोहनराजजी सिंघवी मुमुक्षुओं की अनुमोदना करते हुए राष्ट्रपति महामहिम श्री राम नाथ कोविन्दजी गुरु आशिष महापर्व पर उपस्थित जनसमुदाय For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City SO, and on 20th date of every month under Postal Regd. No. G-GNR-334 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2018. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची जैन हस्तलिखित साहित्य (खंड-१.१.२३) KAILASA ŚRUTASAGARA GRANTHASUCK RENTINGE Descriptive Catalogue of Jain Manuscripts (Vol-1.1.23) यह प्रमाणा बडागांवादद्यागीम बदरिमीण सिटमा वादमा गगरावति।। नामा डिएडि आचार्य श्रीमदादीर। कलाससागरसूरि ज्ञानमादर नार आदमित कोबा तीर्थ का पारसना सिंगाराश्रीयादी S महामहिम राष्ट्रपति महोदय द्वारा विमोचन हुए कैलासश्रुतसागर ग्रंथसूची भाग-२३ का मुखपृष्ठ BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा जि. गांधीनगर ३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स (०७९) २३२७६२४९ Website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Printed and Published by: HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta. & Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at: NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate, Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta. & Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI 32