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श्रुतसागर
सितम्बर-२०१७ सामाइअम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥८०२॥
श्रुतधरों ने सामायिक व्रत में मन-वचन-काया को संयमित रखने का उपदेश दिया है। फिर भी प्रमाद या असावधानीवश दूषण लग जाते हैं। स्थूल रूप में ये मन के दस, वचन के दस और काया के बारह दूषण कहे गये हैं। उन दोषों को जानकर साधक यथावसर दोष-सेवन से बच सकता है। अद्यावधि प्रायः अप्रकाशित प्रस्तुत रचना उन्हीं बत्तीस दोषों के विषय में है। इसे प्रतिक्रमण में सज्झाय के स्थान पर गाया जा सकता है।
रत्नसंचय प्रकरण में बत्तीस दोषों का परिगणन इस प्रकार किया है। पल्हत्थी अथिरासण दिसिपरिवत्तिय कज्ज वटुंभे। अइअंगवग्गणागण आलस करकड मले कंडू ॥१९३॥ विस्सामण तह उंघण इय बारस दोसवज्जियं जस्स। कायसामाइय सुद्धं एगविहं तस्स सामइयं
॥१९४॥ कुव्वयण सहस्सकारो लोडण अहछंदवयण संखेवो। कलहो विग्गह हासो तुरियं च गमणागमणाइ ॥१९५॥ अविवेओ जसकित्ती लाभत्थी गव्व भय नियाणत्थी। संसय रोस अविणीओ भत्तिचुओ दस य माणसिया ॥१९७॥ बत्तीसदोसरहियं तणुवयमणसुद्धिसंभवं तिविहं।
जस्स हवइ सामाइयं तस्स भवे सिवसुहा लच्छी ॥१९८॥ कर्ता परिचय
'खरतरगच्छ का बृहत् इतिहास' के अनुसार आचार्य श्री जिनवर्धनसूरिजी महाराज की पिप्पलक शाखा निकली। उस शाखा से विक्रम संवत् १५६६ में आचार्य श्री जिनदेवसूरि से आद्यपक्षीय शाखा निर्गत हुई। श्री जिनदेवसूरिजी के पट्ट पर जिनसिंहसूरि - जिनचंद्रसूरि - जिनहर्षसूरि - जिनलब्धिसूरि हुए।
आचार्य जिनलब्धिसूरिजी महाराज का जन्म रायपुर नगर में दोसी गोत्रीय देदो साह की धर्मपत्नी दाडिमदे की रत्नकुक्षि से हुआ।
विक्रम संवत् १७११ वैशाख वदि ११ के दिन धाडिवाल साह कर्मचंद कृत नन्दि महोत्सव में श्री जिनहर्षसूरिजी ने आपको अपने पाट पर स्थापित किया। आपका
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